
आशाधरजी : संस्कृत
अन्वय - मे मृत्युर्न कुत: भीति:, मे व्याधिर्न व्यथा कुत:, अहं न बाल:, नाहं वृद्ध:, न युवा, एतानि पुद्गले । टीका - न मे एकोअहमित्यादिना निश्चितात्मस्वरूपस्य मृत्यु: प्राणत्यागो नास्ति । चिच्छक्तिलक्षण-भावप्राणानां कदाचिदपि त्यागाभावात् । यतश्च मे मरणं नास्ति तत: कुत: कस्मात्मरणकारणात्कृष्टस-र्पादेर्भीतिर्भयं मम स्यान्न कुतश्चिदपि विभेमीत्यर्थ: । तथा व्याधिर्वातादिदोषवैषम्यं मम नास्ति मूर्तसम्ब-न्धित्वाद्वातादीनाम् । यतश्चैवं तत: कस्मात् ज्वरादिविकारात् मम व्यथा स्यात्तथा वालाद्यवस्थो नाहमस्मि तत: कथं बालाद्यवस्थाप्रभवै: दुखैरभिभूयेय अहमिति सामर्थ्यादत्र द्रष्टव्यम् । तर्हि क्व मृत्युप्रभृतीनि स्युनित्याह- एतानि मृत्यु व्याधिबालादीनि पुद्गले मूर्ते देहादावैव संभवन्ति । मूर्तधर्मत्वादमूर्ते मयि तेषां नितरामसंभवात् । भूयोअपि भावक एव स्वयमाशंकते तर्ह्रोतान्यासाद्य मुक्तानि पश्चातापकारीणि भविष्यन्तीति यद्युक्तनीत्या भयादयो में न भवेयुस्तर्हि एतानि देहादिवस्तून्यासाद्य जन्मप्रभृत्यात्मात्मीयभावेन प्रतिपद्य मुक्तानीदानीं भेदभावनावष्टम्भान्मया त्यक्तानि । चिराभ्यस्ताभेद-संस्कारवशात्पश्चात्तापकराणि किमितीयानि मयात्मीयानि त्यक्तानीत्यनुशयकरीणि मम भविष्यन्ति । अत्र स्वयमेव प्रतिषेधमनुध्यायति तन्नेति यत: - ॥२९॥ 'एकोहं निर्मम: शुद्ध:' इत्यादिरूप से जिसका स्व-स्वरूप निश्चित हो गया है, ऐसा जो मैं हूँ, उसका प्राणत्यागरूप मरण नहीं हो सकता, कारण कि चित्शक्तिरूप भाव-प्राणों का कभी भी विछोह नहीं हो सकता । जब कि मेरा मरण नहीं, तब मरण के कारणभूत काल नाम आदिकों से मुझे भय क्यों ? अर्थात् मैं किसी से भी नहीं डरता हूँ । इसी प्रकार वात, पित्त, कफ आदि को विषमता को व्याधि कहते हैं, और वह मुझे है नहीं, कारण कि वात आदिक मूर्तपदार्थ से ही सम्बन्ध रखनेवाले हैं । जब ऐसा है, तब ज्वर आदि विकरों से मुझे व्यथा-तकलीफ कैसी ? उसी तरह मैं बाल, वृद्ध आदि अवस्थावाला भी नहीं हूँ । तब बाल, वृद्ध आदि अवस्थाओं से पैदा होनेवाले दु:खों-क्लेशों से मैं कैसे दु:खी हो सकता हूँ ? अच्छा यदि मृत्यु वगैरह आत्मा में नहीं होते, तो किसमें होते हैं ? इसका जवाब यह है कि 'एतानि पुद्गलें' ये मृत्यु-व्याधि और बाल-वृद्ध आदि दशाएँ पुद्गल-मूर्त शरीर आदिकों में ही हो सकती हैं । कारण कि ये सब मूर्तिमान् पदार्थों के धर्म हैं । मैं तो अमूर्त हूँ, मुझमें वे कदापि नहीं हो सकतीं । फिर भी भावना करनेवाला खुद शंका करता है, कि यदि कही हुई नीति के अनुसार मुझे भय आदि न होवे न सही, परन्तु जो जन्म से लगाकर अपनाई गई थी और भले ही जिन्हें मैंने भेद-भावना के बल में छोड़ दिया है, ऐसी देहादिक वस्तुएँ, चिरकाल में अभ्यस्त-अभेद संस्कार के वश से पश्चाताप करनेवाली हो सकती हैं कि अपनी इन चीजों को मैंने क्यों छोड़ दिया ? भावक / भावना करनेवाला स्वयं ही प्रतिबोध हो सोचता है कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है, कारण कि -- |