+ मंगलाचरण -
जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि ॥1॥
अन्वयार्थ : [ये] जो (भगवान्) [ध्यानाग्निना ] ध्यानरूपी अग्नि से [कर्म-कलङ्कान् ] पहले कर्मरूपी मैलों को [दग्ध्वा ] भस्म करके [नित्यनिरंजनज्ञानमयाः जाताः] नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, [तान्] उन [परमात्मनः] सिद्धों को [नत्वा] नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाश का व्याख्यान करता हूँ ।
Meaning : Obeisance to that Siddha Parmatman who having by the fire of meditation burnt up his Karmas, has freed himself from the impurities of karmic alloy, attained the purity of consciousness, and become Everlasting.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण व्याख्याने क्रियमाणे ग्रन्थकारो ग्रन्थस्यादौमङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणः सन् दोहकसूत्रमेकं प्रतिपादयति --

ये जाता ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कान् दग्ध्वा ।
नित्यनिरञ्जनज्ञानमयास्तान् परमात्मनः नत्वा ॥१॥

जे जाया ये केचन कर्तारो महात्मानो जाता उत्पन्नाः । केन कारणभूतेन । झाणग्गियएध्यानाग्निना । किं कृत्वा पूर्वम् । कम्मकलंक डहेवि — कर्मकलङ्कमलान् दग्ध्वा भस्मीकृत्वा ।कथंभूताः जाताः । णिच्चणिरंजणणाणमय नित्यनिरञ्जनज्ञानमयाः ते परमप्प णवेवितान्परमात्मनः कर्मतापन्नान्नत्वा प्रणम्येतितात्पर्यार्थव्याख्यानं समुदायकथनं संपिण्डितार्थ-
निरूपणमुपोद्धातः संग्रहवाक्यं वार्तिकमिति यावत् । इतो विशेषः । तद्यथा – ये जाता उत्पन्नामेघपटलविनिर्गतदिनकरकिरणप्रभावात्कर्मपटलविघटनसमये सकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टय-
व्यक्ति रूपेण लोकालोकप्रकाशनसमर्थेन सर्वप्रकारोपादेयभूतेन कार्यसमयसाररूप परिणताः । कयानयविवक्षया जाताः सिद्धपर्यायपरिणतिव्यक्त रूपतया धातुपाषाणे सुवर्णपर्यायपरिणति - व्यक्ति वत् ।तथा चोक्तं पञ्चास्तिकाये – पर्यायार्थिकनयेन 'अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो', द्रव्यार्थिकनयेन पुनः शक्त्यप्रेक्षया पूर्वमेव शुद्धबुद्धैकस्वभावस्तिष्ठति धातुपाषाणे सुवर्णशक्ति वत् । तथा चोक्तं द्रव्यसंग्रहे -- शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावाः । केनजाताः । ध्यानाग्निना करणभूतेन ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्पशुक्लध्यानम्,अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्परूपातीतध्यानम् । तथा चोक्त म् -- 'पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थंस्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।' तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्याशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसी-भावसुखरसास्वादरूपमितिज्ञातव्यम् । किं कृत्वा जाताः । कर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वा कर्ममलशब्देनद्रव्यकर्मभावकर्माणि गृह्यन्ते । पुद्गलपिण्डरूपाणि ज्ञानावरणादीन्यष्टौ द्रव्यकर्माणि,रागादिसंकल्पविकल्परूपाणि पुनर्भावकर्माणि । द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन,भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन शुद्धनिश्चयेन बन्धमोक्षौ न स्तः । इत्थंभूतकर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वाकथंभूता जाताः । नित्यनिरञ्जनज्ञानमयाः । क्षणिकैकान्तवादिसौगत-मतानुसारिशिष्यं प्रतिद्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावपरमात्मद्रव्यव्यवस्थापनार्थं नित्यविशेषणं कृतम् ।अथ कल्पशते गते जगत् शून्यं भवति पश्चात्सदाशिवे जगत्करणविषये चिन्ता भवति तदनन्तरं मुक्ति गतानां जीवानां कर्माञ्जनसंयोगं कृत्वा संसारे पतनं करोतीति नैयायिका वदन्ति, तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जननिषेधार्थं मुक्त जीवानां निरञ्जनविशेषणं कृतम् । मुक्तात्मनां सुप्तावस्थाबद्बहिर्ज्ञेयविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति,तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञान-स्थापनार्थं ज्ञानमय-विशेषणं कृतमिति । तानित्थंभूतान् परमात्मनो नत्वा प्रणम्य नमस्कृत्येतिक्रियाकारक संबन्धः । अत्र नत्वेति शब्दरूपो वाचनिको द्रव्यनमस्कारो ग्राह्योऽसद्भूतव्यवहार-नयेन ज्ञातव्यः, केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति, शुद्धनिश्चयनयेन वन्द्यवन्दकभावो नास्तीति । एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः,नयविभागकथनरूपेण नयार्थोऽपि भणितः, बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवंगुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्त ाः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपंपरमात्मद्रव्यमुपादेयमिति भावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकालेयथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्य इति॥१॥


अब, प्रथम पातनिका के अभिप्राय से व्याख्यान किया जाता है, उसमें ग्रंथकर्ता श्री योगीन्द्राचार्यदेव ग्रंथ के आरंभ में मंगल के लिए इष्टदेवता श्री भगवान को नमस्कार करते हुए एक दोहा छंद कहते हैं --

जैसे मेघ-पटल से बाहर निकली हुई सूर्य की किरणों की प्रभा प्रबल होती है, उसी तरह कर्मरूप मेघसमूह के विलय होने पर अत्यंत निर्मल केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टय की प्रगटतास्वरूप परमात्मा परिणत हुए हैं । अनंतचतुष्टय अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, ये अनंतचतुष्टय सब प्रकार अंगीकार करने योग्य हैं, तथा लोकालोक के प्रकाशन को समर्थ हैं । जब सिद्ध-परमेष्ठी अनंतचतुष्टयरूप परिणमे, तब कार्य-समयसार हुए । अंतरात्म अवस्था में कारण-समयसार थे । जब कार्य-समयसार हुए तब सिद्ध-पर्याय परिणति की प्रगटतारूप द्वारा शुद्ध परमात्मा हुए । जैसे सोना अन्य धातु के मिलाप से रहित हुआ, अपने सोलहवानरूप प्रगट होता है, उसी तरह कर्म-कलंक रहित सिद्ध-पर्यायरूप परिणमे । तथा पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी कहा है -- जो पर्यायार्थिकनय से 'अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो' अर्थात् जो पहले सिद्ध-पर्याय कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंक के विनाश से पाई । यह पर्यायार्थिक नय की मुख्यता से कथन है और द्रव्यार्थिकनय से शक्ति की अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध-बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता है । जैसे धातु पाषाण के मेल में भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्ण में सदा ही रहती है, जब पर वस्तु का संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है । सारांश यह है कि शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्ध-पर्याय पाने से हुआ । शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं । ऐसा ही द्रव्यसंग्रह में कहा है, 'सव्वे सुद्धाहुसुद्धणया' अर्थात् शुद्ध नय से सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायर्थिकनय से व्यक्ति से शुद्ध हुए । किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि द्वारा कर्मरूपी कलंकों को भस्म किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्म की अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है । तथा दूसरी जगह भी कहा है -- 'पदस्थं' इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदि का जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका चिंतवन वह पिंडस्थ है, सर्व चिद्रूप (सकल परमात्मा) जो अरहंतदेव उनका ध्यान वह रूपस्थ है, और निरंजन (सिद्धभगवान्) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है । वस्तु के स्वभाव से विचारा जावे, तो शुद्ध आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई जो निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरस का आस्वाद वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यान का लक्षण जानना चाहिये । इसी ध्यान के प्रभाव से कर्मरूपी मैल वही हुआ कलंक, उनको भस्म कर सिद्ध हुए । कर्म-कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म इनमें से जो पुद्गल-पिंडरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म वे द्रव्यकर्म हैं, और रागादिक संकल्प-विकल्प परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं । यहाँ भावकर्म का दहन अशुद्ध निश्चयनय से हुआ,तथा द्रव्यकर्म का दहन असद्भुत अनुपचरित व्यवहारनय से हुआ और शुद्ध निश्चय से तो जीव के बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है । इस प्रकार कर्मरूप मलों को भस्म कर जो भगवान हुए, वे कैसे हैं ? वे भगवान सिद्ध परमेष्ठी नित्य निरंजन ज्ञानमई हैं । यहाँ पर नित्य जो विशेषण किया है, वह एकान्तवादी बौद्ध जो कि आत्मा को नित्य नहीं मानता, क्षणिक मानता है, उसको समझाने के लिये है । द्रव्यार्थिकनय से आत्मा को नित्य कहा है, टंकोत्कीर्ण अर्थात् टाँकी का साघडया सुघट ज्ञायक एक स्वभाव परम द्रव्य है । ऐसा निश्चय कराने के लिये नित्यपने का निरूपण किया है । इसके बाद निरंजनपने का कथन करते हैं । जो नैयायिकमती हैं वे ऐसा कहते हैं 'सौ कल्पकाल चले जानेपर जगत् शून्य हो जाता है और सब जीव उस समय मुक्त हो जाते हैं तब सदाशिव को जगत्के करने की चिन्ता होती है । उसके बाद जो मुक्त हुए थे, उन सबके कर्मरूप अंजन का संयोग करके संसार में पुनः डाल देता है', ऐसी नैयायिकों के श्रद्धा है । उनके सम्बोधने के लिये निरंजनपने का वर्णन किया कि भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप अंजन का संसर्ग सिद्धों के कभी नहीं होता । इसी लिये सिद्धों को निरंजन ऐसा विशेषण कहा है । अब सांख्यमती कहते हैं -- 'जैसे सोने की अवस्था में सोते हुए पुरुष को बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहींहोता, वैसे ही मुक्तजीवों को बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है ।' ऐसे जो सिद्धदशा में ज्ञान का अभाव मानते है, उनको प्रतिबोध कराने के लिये तीन जगत् तीनकालवर्ती सब पदार्थों का एक समय में ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोक के जानने की शक्ति है, ऐसे ज्ञायकतारूप केवलज्ञान के स्थापन करने के लिये सिद्धों का ज्ञानमय विशेषण किया । वे भगवान नित्य हैं, निरंजन हैं, और ज्ञानमय हैं, ऐसे सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके ग्रंथ का व्याख्यान करता हूँ । यह नमस्कार शब्द रूप वचन द्रव्य-नमस्कार है और केवलज्ञानादि अनंत गुणस्मरणरूप भाव-नमस्कार कहा जाता है । यह द्रव्य-भावरूप नमस्कार व्यवहारनय से साधक-दशा में कहा है, शुद्धनिश्चयनय से वंद्य-वंदक भाव नहीं है । ऐसे पदखंडनारूप शब्दार्थ कहा और नयविभाग रूप कथन से नयार्थ भी कहा, तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मत के कथन करने से मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्ध-परमेष्ठी संसार से मुक्त हुए हैं, यह सिद्धांत का अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमई परमात्मा-द्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है, यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, मत, आगम, भावार्थ व्याख्यान के अवसर पर सब जान लेना ॥१॥