श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथानन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानाचार्योपाध्यायसाधून्नमस्करोमि - [जे परमप्पु णियंति मुणि] ये केचन परमात्मानं निर्गच्छन्ति स्वसंवेदनज्ञानेन जानन्तिमुनयस्तपोधनाः । किं कृत्वा पूर्वम् । [परमसमाहि धरेवि] रागादिविकल्परहितं परमसमाधिं धृत्वा । केन कारणेन । [परमाणंदह कारणिण] निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसदानन्दपरमसमरसीभावसुख-रसास्वादनिमित्तेन [तिण्णि वि ते वि णवेवि] त्रीनप्याचार्योपाध्यायसाधून् नत्वा नमस्कृत्येत्यर्थः । अतो विशेषः । अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं तथैवाशुद्धनिश्चयसंबन्धःमतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायरहितं च यच्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव भूतार्थं परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति । चलमलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारस्तत्रैव संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः, तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वादस्थिरानु-भवनं च सम्यक्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः, तत्रैव परद्रव्येच्छानिरोधेन सहजानन्दैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचारः, तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यनवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार इति निश्चयपञ्चाचाराः । निःशङ्काद्यष्टगुणभेदोबाह्यदर्शनाचारः, कालविनयाद्यष्टभेदो बाह्यज्ञानाचारः, पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिनिर्ग्रन्थरूपो बाह्यचारित्राचारः, अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः, बाह्यस्वशक्त्यनवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचार इति । अयं तु व्यवहारपञ्चाचारः पारंपर्येण साधक इति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव-शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानबहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिरूपं तपश्चरणं स्वशक्त्यनवगूहन-वीर्यरूपाभेदपञ्चाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिंस्वयमाचरन्त्यन्यानाचारयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे । पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्व-नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्धजीवद्रव्यशुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञं स्वशुद्धात्म-भावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं कथयन्ति, शुद्धात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-रत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षमार्गं च ये कथयन्ति ते भवन्त्युपाध्यायास्तानहं वन्दे । शुद्धबुद्धैक-स्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणतपश्चरणरूपाभेदचतुर्विधनिश्चयाराधनात्मकवीतराग-निर्विकल्पसमाधिं ये साधयन्ति ते भवन्ति साधवस्तानहं वन्दे । अत्रायमेव ते समाचरन्तिकथयन्ति साधयन्ति च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं तमेवोपादेयभूतस्य स्वशुद्धात्मतत्त्वस्य साधकत्वादुपादेयं जानीहीति भावार्थः ॥७॥ इति प्रभाकरभट्टस्य पञ्चपरमेष्ठि-नमस्कारकरणमुख्यत्वेन प्रथममहाधिकारमध्ये दोहकसूत्रसप्तकं गतम् । आगे भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ - अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसी से अनादि संबंध है, परंतु असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म, नोकर्म का संबंध होता है, उससे रहित और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि का संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुण के संबंध से रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायों से रहित ऐसा जो चिदानंद-चिद्रूप एक अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है । उसी को परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए । वही सब प्रकार आराधने योग्य है । उससे जुदी जो पर-वस्तु है वह सब त्याज्य है । ऐसी दृढ़ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निज-स्वरूप में संशय-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्व-संवेदन ज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ-अशुभ समस्त संकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरस का आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है, उसका जो आचरण, उसरूप परिणमन, वह चारित्राचार है, उसी परमानंद स्वरूपमें पर-द्रव्य की इच्छा का निरोधकर सहज आनंदरूप तपश्चरण-स्वरूप परिणमन वह तपश्चरणाचार है और उसी शुद्धात्म-स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकटकर आचरण परिणमन वह वीर्याचार है । यह निश्चय-पंचाचार का लक्षण कहा । अब व्यवहार का लक्षण कहते हैं - निःशंकित को आदि लेकर अष्ट-अंगरूप बाह्यदर्शनाचार, शब्द शुद्ध, अर्थ शुद्ध आदि अष्ट प्रकार बाह्य ज्ञानाचार, पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरुप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी शक्ति प्रगटकर मुनिव्रत का आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है । यह व्यवहार पंचाचार परम्परा-मोक्ष का कारण है, और निर्मल ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो शुद्धात्म-तत्त्व उसका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तथा पर-द्रव्य की इच्छा का निरोध और निज-शक्ति का प्रगट करना ऐसा यह निश्चय पंचाचार साक्षात् मुक्ति का कारण है । ऐसे निश्चय व्यवहाररूप पंचाचारों को आप आचरें और दूसरों को आचरवावें ऐसे आचार्यों को मैं वंदता हूँ । पंचास्तिकाय, षट्-द्रव्य, सप्त-तत्त्व, नव-पदार्थ हैं, उनमें निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निज शुद्ध जीव-द्रव्य, निज शुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्म स्वभाव का सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद रत्नत्रय है, वही निश्चय-मोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्यों को देते हैं, ऐसे उपाध्यायों को मैं नमस्कार करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्व की आराधनारूप वीतराग निर्विकल्प समाधि को जो साधते हैं, उन साधुओं को मैं वंदता हूँ । वीतराग निर्विकल्प समाधि को जो आचरते हैं, कहते हैं, साधते हैं वे ही साधु हैं । अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये ही पंचपरमेष्ठी वंदने योग्य हैं, ऐसा भावार्थ है ॥७॥ ऐसे परमेष्ठी को नमस्कार करने की मुख्यता से श्रीयोगीन्द्राचार्य ने परमात्मप्रकाश के प्रथम-महाधिकार में प्रथम-स्थल में सात दोहों से प्रभाकरभट्ट नामक अपने शिष्य को पंचपरमेष्ठी की भक्ति का उपदेश दिया । इति पीठिका
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