श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ यस्यैव परमात्मस्वभावस्यालाभेऽनादिकाले भ्रमितो जीवस्तमेव पृच्छति - [चउगइदुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ] चतुर्गतिदुःखतप्तानां जीवानां यःकश्चिच्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा । पुनरपि कथंभूतः । [चउगइदुक्खविणासयरु] आहारभय-मैथुनपरिग्रहसंज्ञारूपादिसमस्तविभावरहितानां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन परमात्मोत्थ-सहजानन्दैकसुखामृतसंतुष्टानां जीवानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः [कहहु पसाएं सो वि] हे भगवन् तमेव परमात्मानं महाप्रसादेन कथयति । अत्र योऽसौ परमसमाधिरतानां चतुर्गति-दुःखविनाशकः स एव सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥१०॥ एवं त्रिविधात्म प्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये प्रभाकरभट्ट विज्ञप्तिकथनमुख्यत्वेन दोहकसूत्रत्रयं गतम् । आगे जिस परमात्म-स्वभाव के अलाभ में यह जीव अनादि-काल से भटक रहा था, उसी परमात्म-स्वभाव का व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है - वह चिदानंद शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह के भेदरूप संज्ञाओं को आदि लेके समस्त विभावों से रहित, तथा वीतराग निर्विकल्प-समाधि के बल से निज स्वभाव द्वारा उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृत से संतुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे निकट संसारी-जीवों के चतुर्गति का भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म-जरा-मरणरूप दुःख का नाशक है, तथा वह परमात्मा निज स्वरूप परम-समाधि में लीन महामुनियों को निर्वाण का देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्मा का स्वरूप आपके प्रसाद से सुनना चाहता हूँ । इसलिये कृपाकर आप कहो । इस प्रकार प्रभाकर भट्ट ने श्रीयोगींद्रदेव से विनती की ॥१०॥ इस कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे हुए । |