श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ त्रिविधात्मानं ज्ञात्वा बहिरात्मानं विहाय स्वसंवेदनज्ञानेन परं परमात्मानं भावयत्वमिति प्रतिपादयति - [अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ] हे प्रभाकरभट्ट आत्मानं त्रिविधं मत्वालघु शीघ्रं मूढं बहिरात्मस्वरूपं भावं परिणामं मुञ्च । [मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्पसहाउ] पश्चात् त्रिविधात्मपरिज्ञानानन्तरं मन्यस्व जानीहि । केन करणभूतेन । अन्तरात्मलक्षण-वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन । कं जानीहि । यं परात्मस्वभावम् । किंविशिष्टम् । ज्ञानमयंकेवलज्ञानेन निर्वृत्तमिति । अत्र योऽसौ स्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मा ज्ञातः स एवोपादेय इतिभावार्थः । स्वसंवेदनज्ञाने वीतरागविशेषणं किमर्थमिति पूर्वपक्षः, परिहारमाह-विषयानुभव-रूपस्वसंवेदनज्ञानं सरागमपि द्रश्यते तन्निषेधार्थमित्यभिप्रायः ॥१२॥ आगे तीन प्रकार आत्मा को जानकर बहिरात्मपना छोड़ स्व-संवेदन ज्ञानकर तू परमात्मा का ध्यान कर, इसे कहते हैं - जो वीतराग स्व-संवेदन द्वारा परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है । यहाँ शिष्य ने प्रश्न किया था, जो स्व-संवेदन अर्थात् अपने से अपने को अनुभवना इसमें वीतराग विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्व-संवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही । इसका समाधान श्रीगुरु ने किया - कि विषयों के आस्वादन से भी उन वस्तुओं के स्वरूप का जानपना होता है, परंतु रागभाव से दूषित है, इसलिये निजरस आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशा में स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है । तथा स्व-संवेदनज्ञान प्रथम अवस्था में चौथे पाँचवें गुणस्थानवाले गृहस्थ के भी होता है, वहाँ पर सराग देखने में आता है, इसलिये राग सहित अवस्था के निषेध के लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है । रागभाव है, वह कषायरूप है, इस कारण जबतक मिथ्यादृष्टि के अनंतानुबंधी कषाय है, तबतक तो बहिरात्मा है, उसके तो स्व-संवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी के अभाव होने से सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषाय की तीन चौकड़ी बाकी रहने से द्वितीया के चंद्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावक के पाँचवें गुणस्थान में दो चौकड़ी का अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया, इस कारण स्व-संवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ी के रहने से मुनि के समान प्रकाश नहीं हुआ । मुनि के तीन चौकड़ी का अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल हो गया, तथा वीतराग-भाव प्रबल हुआ, वहाँ पर स्व-संवेदनज्ञान का अधिक प्रकाश हुआ, परंतु चौथी चौकड़ी बाकी है, इसलिये छट्ठे गुणस्थानवाले मुनिराज सराग-संयमी हैं । वीतराग संयमी के जैसा प्रकाश नहीं है । सातवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी मंद हो जाती है, वहाँ पर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यान में आरूढ़ रहते हैं, सातवें से छठे गुणस्थान में आवें, तब वहाँ पर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छट्ठा-सातवाँ करते रहते हैं, वहाँ पर अंतर्मुहूर्त काल है । आठवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी अत्यंत मंद हो जाती है, वहाँ रागभाव की अत्यंत क्षीणता होती है, वीतराग-भाव पुष्ट होता है, स्व-संवेदनज्ञान का विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी माँडने से शुक्ल-ध्यान उत्पन्न होता है । श्रेणी के दो भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम, क्षपक-श्रेणी वाले तो उसी भव से केवलज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवें से ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ - एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवें से नव में गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहाँ कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलन लोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होने से वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्व-संवेदनज्ञान का बहुत ज्यादा प्रकाश होता है, परंतु एक संज्वलन लोभ बाकी रहने से वहाँ सराग-चरित्र ही कहा जाता है । दशवें गुणस्थान में सूक्ष्म-लोभ भी नहीं रहता, तब मोह की अट्ठाईस प्रकृतियों के नष्ट हो जाने से वीतराग-चारित्र की सिद्धि हो जाती है । दशवें से बारहवें में जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते, वहाँ निर्मोह वीतरागी के शुक्लध्यान का दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यात-चारित्र हो जाता है । बारहवें के अंत में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीनों का विनाश कर डाला, मोह का नाश पहले ही हो चुका था, तब चारों घातिकर्मों के नष्ट हो जाने से तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट होता है, वहाँ पर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञान का पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निःकषाय है । वह चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो अंतरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढ़ती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्मा के है, यह सारांश समझना ॥१२॥ |