श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
पुनश्च किंविशिष्टो भवति - यः कर्ता निजभावमनन्तज्ञानादिस्वभावं न परिहरति यश्च परभावंकामक्रोधादिरूपमात्मरूपतया न गृह्नाति । पुनरपि कथंभूतः । जानाति सर्वमपिजगत्त्रयकालत्रयवर्तिवस्तुस्वभावं न केवलं जानाति द्रव्यार्थिकनयेन नित्य एव अथवा नित्यं सर्वकालमेव जानाति परं नियमेन । स इत्थंभूतः शिवो भवति शान्तश्च भवतीति । किं चअयमेव जीवः मुक्तावस्थायां व्यक्ति रूपेण शान्तः शिवसंज्ञां लभते संसारावस्थायां तु शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्ति रूपेणेति । तथा चोक्त म् - 'परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु' । पुनश्चोक्त म् - 'शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् । प्राप्तं मुक्ति पदं येन स शिवःपरिकीर्तितः ॥' अन्यः कोऽप्येको जगत्कर्ता व्यापी सदा मुक्त : शान्तः शिवोऽस्तीत्येवं न ।अत्रायमेव शान्तशिवसंज्ञः शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ॥१८॥ आगे फिर उसी परमात्मा का कथन करते हैं - संसार अवस्था में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव शक्तिरूप से परमात्मा हैं, व्यक्तिरूप से नहीं है । ऐसा कथन अन्य ग्रंथों में भी कहा है - 'शिवमित्यादि' अर्थात् परम-कल्याणरूप, निर्वाणरूप, महाशांत अविनश्वर ऐसे मुक्ति-पद को जिसने पा लिया है, वही शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत नैयायिकों का तथा वैशेषिक आदि का माना हुआ नहीं है । यह शुद्धात्मा ही शांत है, शिव है, उपादेय है ॥१८॥ |