श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ धारणाध्येययन्त्रमन्त्रमण्डलमुद्रादिकं व्यवहारध्यानविषयं मन्त्रवादशास्त्रकथितं यत्तन्निर्दोषपरमात्माराधनाध्याने निषेधयन्ति - यस्य परमात्मनो नास्ति न विद्यते । किं किम् । कुम्भकरेचकपूरकसंज्ञावायुधारणादिकंप्रतिमादिकं ध्येयमिति । पुनरपि किं किं तस्य । अक्षररचनाविन्यासरूपस्तम्भनमोहनादिविषयंयन्त्रस्वरूपं विविधाक्षरोच्चारणरूपं मन्त्रस्वरूपं च अपमण्डलवायुमण्डलपृथ्वीमण्डलादिकं गारुड-मुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्यार्थिकनयेनानन्तमविनश्वरमनन्त-ज्ञानादिगुणस्वभावं च मन्यस्व जानीहि । अतीन्द्रियसुखास्वादविपरीतस्य जिह्वेन्द्रियविषयस्यनिर्मोहशुद्धात्मस्वभावप्रतिकूलस्य मोहस्य वीतरागसहजानन्दपरमसमरसीभावसुखरसानुभवप्रतिपक्षस्य नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातकस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः । तथा चोक्तम् - अक्खाण रसणी कम्माण मोहणीतह वयाण बंभं च । गुत्तिसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं सिज्झंति ॥ आगे धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा आदिक व्यवहार-ध्यान के विषय मंत्रवाद शास्त्र में कहे गए हैं, उन सबका निर्दोष परमात्मा की आराधनारूप ध्यान में निषेध किया है - अतीन्द्रिय आत्मीक-सुख के आस्वाद से विपरीत जिह्वाइंद्री के विषय (रस) को जीत के निर्मोह शुद्ध स्वभाव से विपरीत मोह-भाव को छोड़कर और वीतराग सहज आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रस के अनुभव का शत्रु जो नौ तरह का कुशील उसको तथा निर्विकल्प-समाधि के घातक मन के संकल्प-विकल्पों को त्यागकर हे प्रभाकर भट्ट, तू शुद्धात्मा का अनुभव कर । ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है - 'अक्खाणेति..' इसका आशय इस तरह है, कि इन्द्रियों में जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में मोह-कर्म बलवान होता है, पाँच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियों में से मनोगुप्ति पालना कठिन है । ये चार बातें मुश्किल से सिद्ध होती हैं ॥२२॥ |