श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अत ऊर्ध्वं प्रक्षेपपञ्चक मन्तर्भूतचतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं याद्रशो व्यक्तिरूपः परमात्मामुक्तौ तिष्ठति ताद्रशः शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण देहेपि तिष्ठतीति कथयन्ति । तद्यथा - याद्रशः केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपः कार्यसमयसारः, निर्मलो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म-मलरहितः, ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणपरिणतः सिद्धो मुक्तो मुक्तौ निवसति तिष्ठति देवः परमाराध्यः ताद्रशः पूर्वोक्तलक्षणसद्रशः निवसति तिष्ठति ब्रह्माशुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा पर उत्कृष्टः । क्व निवसति । देहे । केन । शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन ।कथंभूतेन । शक्तिरूपेण हे प्रभाकरभट्ट भेदं मा कार्षीस्त्वमिति । तथा चोक्तं श्रीकुन्द-कुन्दाचार्यदेवैः मोक्षप्राभृते - णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं । थुव्वंतेहिंथुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ॥ अत्र स एव परमात्मोपादेय इति भावार्थः ॥२६॥ आगे पाँच क्षेपक मिले हुए चौबीस दोहों में जैसा प्रगटरूप परमात्मा मुक्ति में है, वैसा ही शुद्ध-निश्चयनय से देह में भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं - ऐसा ही मोक्षपाहुड़ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है 'णमिएहिं..' इत्यादि - इसका यह अभिप्राय है कि जो नमस्कार योग्य महापुरुषों से भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य सत्पुरुषों से स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्य-परमेष्ठी वगैरह से भी ध्यान करने योग्य ऐसा जीव नामा पदार्थ इस देह में बसता है, उसको तू परमात्मा जान । वही परमात्मा उपादेय है ॥२६॥ |