+ परमात्मा का एक अद्भुत् लक्षण -
देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमेँ देहु वि जो जि
देहेँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ॥34॥
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एव ।
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३४॥
अन्वयार्थ : [य एव देहे वसन्नपि] जो देह में रहता हुआ भी [नियमेन देहमपि] नियम से शरीर को [नैव स्पृशति] नहीं स्पर्श करता, [देहेन यः अपि] देह से वह भी [नैव स्पृश्यते] नहीं छुआ जाता [तमेव] उसी को [परमात्मानं मन्यस्व] परमात्मा जान ।
Meaning : One who, although dwelling in the body, does not touch it, that is, does not become converted into the nature of the body-nor does the body become converted into his nature -- that is the self-same Parmatman.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ शुद्धात्मविलक्षणे देहे वसन्नपि देहं न स्पृशति देहेन सोऽपि न स्पृश्यत इतिप्रतिपादयति -

देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि, य एव देहेन न स्पृश्यते योऽपि मन्यस्वजानीहि परमात्मा सोऽपि । इतो विशेषः - शुद्धात्मानुभूतिविपरीतेन क्रोधमानमायालोभ-स्वरूपादिविभावपरिणामेनोपार्जितेन पूर्वकर्मणा निर्मिते देहे अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण वसन्नपि निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमात्मानं तमेवम् । किं कृत्वा । वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वेति । अत्र य एव शुद्धात्मानुभूतिरहितदेहेवसन्नपि देहममत्वपरिणामेन सहितानां हेयः स एव शुद्धात्मा देहममत्वपरिणामरहितानामुपादेय इति भावार्थः ॥३४॥


आगे शुद्धात्मा से भिन्न इस देह में रहता हुआ भी देह को नहीं स्पर्श करता है और देह भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं -

जो शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव-परिणाम हैं, उनसे उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा बनाई हुई देह में अनुपचरितअसद्भूत-व्यवहारनय से बसता हुआ भी निश्चय से देह को नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी स्वरूप को वीतराग निर्विकल्प-समाधि में तिष्ठकर चिंतवन करो । यह आत्मा जड़रूप देह में व्यवहारनय से रहता है, सो देहात्म-बुद्धिवाले को नहीं मालूम होती है, वही शुद्धात्मा देह के ममत्व से रहित (विवेकी) पुरुषों के आराधने योग्य है ॥३४॥