श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
यः परमार्थेन देहकर्मरहितोऽपि मूढात्मनां सकल इति प्रतिभातीत्येवं निरूपयति - यः परमार्थेन निष्कलोऽपि देहरहितोऽपि कर्मविभिन्नोऽपि य एव भेदाभेद-रत्नत्रयभावनारहिता मूढात्मानस्तमात्मानं सकलमिति भणन्ति स्फूटं निश्चितं हे प्रभाकरभट्ट तमेव परमात्मानं मन्यस्व जानीहीति, वीतरागसदानन्दैकसमाधौ स्थित्वानुभवेत्यर्थः । अत्र स एवपरमात्मा शुद्धात्मसंवित्तिप्रतिपक्षभूतमिथ्यात्वरागादिनिवृत्तिकाले सम्यगुपादेयो भवति तदभावे हेय इति तात्पर्यार्थः ॥३७॥ आगे निश्चयनय से आत्मा देह और कर्मों से रहित है, तो भी मूढ़ों (अज्ञानियों) को शरीर स्वरूप मालूम होता है, ऐसा कहते हैं - वही परमात्मा शुद्धात्मा के बैरी मिथ्यात्व रागादिकों के दूर होने के समय ज्ञानी जीवों को उपादेय है, और जिनके मिथ्यात्वरागादिक दूर नहीं हुए उनके उपादेय नहीं, पर-वस्तु का ही ग्रहण है ॥३७॥ |