श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ योगीन्द्रवृन्दैर्यो निरवधिज्ञानमयो निर्विकल्पसमाधिकाले ध्येयरूपश्चिन्त्यते तंपरमात्मानमाह - योगीन्द्रवृन्दैः शुद्धात्मवीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतैः ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः यःकर्मतापन्नो ध्यायते ध्येयो ध्येयरूपोऽपि । किमर्थं ध्यायते । मोक्षकारणे मोक्षनिमित्ते अनवरतंनिरन्तरं स एव परमात्मा देवः परमाराध्य इति । अत्र य एव परमात्मा मुनिवृन्दानां ध्येयरूपो भणितः स एवशुद्धात्मसंवित्तिप्रतिपक्षभूतार्तरौद्रध्यानरहितानामुपादेय इति भावार्थः ॥३९॥ आगे अनंत ज्ञानमयी परमात्मा योगीश्वरों द्वारा निर्विकल्प-समाधि-काल में ध्यान करने योग्य है, उसी परमात्मा को कहते हैं - जो परमात्मा मुनियों को ध्यावने योग्य कहा है, वही शुद्धात्मा के बैरी, आर्त-रौद्र ध्यान, से रहित धर्म ध्यानी पुरुषों को उपादेय है, अर्थात् जब आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों छूट जाते हैं, तभी उसका ध्यान हो सकता है ॥३९॥ |