+ कर्म के कारण जीव को स्वभाव-लाभ नहीं -
ते पुणु जीवहँ जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति ।
जेहिँ जि झंपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति ॥61॥
तानि पुनः जीवानां योगिन् अष्टौ अपि कर्माणि भवन्ति ।
यैः एव झंपिताः जीवाः नैव आत्मस्वभावं लभन्ते ॥६१॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [तानि पुनः कर्माणि] वे फिर कर्म [जीवानांअष्टौ अपि] जीवों के आठ ही [भवन्ति] होते हैं, [यैः एव झंपिताः] जिन कर्मों से ही आच्छादित (ढँके हुए) [जीवाः] ये जीव [आत्मस्वभावं] अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप स्वभाव को [नैव लभन्ते] नहीं पाते ।
Meaning : These Karmas are of eight kinds; because of their influence the Jiva does not obtain his Atmic Svabhava (real, spiritual nature).

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ तानि पुनः कर्माण्यष्टौ भवन्तीति कथयति -

ते पुणु जीवहं जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति तानि पुनर्जीवानां हे योगिन्नष्टावेवकर्माणि भवन्ति । जेहिं जि झंपिय जीव णवि अप्पसहाउ लहंति यैरेव कर्मभिर्झपिताः जीवा नैवात्मस्वभावं लभन्ते इति । तद्यथा — ज्ञानावरणादिभेदेन कर्माण्यष्टावेव भवन्ति यैर्झंपिताःसन्तो जीवाः सम्यक्त्वाद्यष्टविधस्वकीयस्वभावं न लभन्ते । तथा हि -
सम्मत्तणाण-दंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं ।
अगुरुगलहुगं अव्वाबाहं अट्ठगुणा हुंति सिद्धाणं ॥
शुद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते । जगत्रयकालत्रयवर्तिपदार्थयुगपद्विशेषपरिच्छित्तिरूपं केवलज्ञानं भण्यते तत्रैव सामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं भण्यते । तत्रैव केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्ति रूपमनन्तवीर्यं भण्यते ।अतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं भण्यते । एकजीवावगाहप्रदेशे अनन्तजीवावगाहदानसामर्थ्यमवगाहनत्वं भण्यते । एकान्तेन गुरुलघुत्वस्याभावरूपेण अगुरुलघुत्वं भण्यते । वेदनीयकर्मोदय-जनितसमस्तबाधारहितत्वादव्याबाधगुणश्चेति । इदं सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं संसारावस्थायां किमपिकेनापि कर्मणा प्रच्छादितं तिष्ठति यथा तथा कथ्यते । सम्यक्त्वं मिथ्यात्वकर्मणा प्रच्छादितं,केवलज्ञानं केवलज्ञानावरणेन झंपितं, केवलदर्शनं केवलदर्शनावरणेन झंपितम्, अनन्तवीर्यं वीर्यान्तरायेण प्रच्छादितं, सूक्ष्मत्वमायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति चेत् । विवक्षितायुःकर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः । अवगाहनत्वं शरीरनामकर्मोदयेन प्रच्छादितं, सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वंनामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्वं प्रच्छाद्यत
इति । अव्याबाधगुणत्वं वेदनीयकर्मोदयेनेति संक्षेपेणाष्टगुणानां कर्मभिराच्छादनं ज्ञातव्यमिति ।तदेव गुणाष्टकं मुक्त ावस्थायां स्वकीयस्वकीयकर्मप्रच्छादनाभावे व्यक्तं भवतीति संक्षेपेणाष्टगुणाः
कथिताः । विशेषेण पुनरमूर्तत्वनिर्नामगोत्रादयः साधारणासाधारणरूपानन्तगुणाःयथासंभवभागमाविरोधेन ज्ञातव्या इति । अत्र सम्यक्त्वादिशुद्धगुणस्वरूपः शुद्धात्मैवोपादेय इतिभावार्थः ॥


आगे कहते हैं, वे कर्म आठ हैं -

अब उन्हीं आठ गुणों का व्याख्यान करते हैं 'सम्मत्त' इत्यादि - इसका अर्थ ऐसा है, कि शुद्ध आत्मादि पदार्थों में विपरीत श्रद्धान रहित जो परिणाम, उसको क्षायिक-सम्यक्त्व कहते हैं, तीन लोक तीन कालके पदार्थोंको एक ही समयमें विशेषरूप सबको जानें, वह केवलज्ञान है, सब पदार्थों को केवलदृष्टि से एक ही समय में देखे, वह केवल-दर्शन है । उसी केवल-ज्ञान में अनंतज्ञायक (जानने की) शक्ति वह अनंतवीर्य है, अतीन्द्रिय-ज्ञान से अमूर्तिक सूक्ष्म-पदार्थों को जानना, आप चार ज्ञान के धारियों से न जाना जावे वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीव के अवगाह क्षेत्रमें (जगह में) अनंते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश देने की सामर्थ्य वह अवगाहना गुण है, सर्वथा गुरुता और लघुता का अभाव अर्थात् न गुरु न लघु, उसे अगुरुलघु कहते हैं, और वेदनीयकर्म के उदय के अभाव से उत्पन्न हुआ समस्त बाधा-रहित जो निराबाधगुण उसे अव्याबाध कहते हैं । ये सम्यक्त्वादि आठ गुण जो सिद्धों के हैं, वे संसारावस्था में किस-किस कर्म से ढँके हुए हैं, इसे कहते हैं -
  • सम्यक्त्व गुण मिथ्यात्व नाम दर्शनमोहनीय कर्म से आच्छादित है, केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढंका हुआ है,
  • केवलदर्शनावरण से केवलदर्शन ढंका है,
  • वीर्यान्तरायकर्म से अनंतवीर्य ढंका है,
  • आयुःकर्म से

    सूक्ष्मत्वगुण ढंका है, क्योंकि आयुकर्म उदय से जब जीव परभव को जाता है, वहाँ इन्द्रियज्ञान का धारक होता है, अतीन्द्रियज्ञान का अभाव होता है, इस कारण कुछ एक स्थूल वस्तुओं को तो जानता है, सूक्ष्म को नहीं जानता,
  • शरीर नामकर्म के उदय से अवगाहनगुण आच्छादित है,
  • सिद्धावस्थाके योग्य विशेषरूप अगुरुलघुगुण नामकर्मके उदयसे अथवा गोत्रकर्म के उदय से ढंक गया है, क्योंकि गोत्र-कर्म के उदय से जब जीव नीच-गोत्र पाया, तब उसमें तुच्छ या लघु कहलाया, और उच्च गोत्र में बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया और
  • वेदनीयकर्म के उदय से अव्याबाध गुण ढंक गया, क्योंकि उसके उदय साता-असातारूप सांसारिक सुख-दुःख का भोक्ता हुआ ।
इस प्रकार आठ गुण आठ कर्मों से ढंक गये, इसलिये यह जीव संसार में भ्रमा । जब कर्म का आवरण मिट जाता है, तब सिद्धपद में ये आठ गुण प्रकट होते हैं । यह संक्षेप से आठ गुणों का कथन किया । विशेषतासे अमूर्तत्व निर्नाम गोत्रादिक अनंतगुण यथासम्भव शास्त्र-प्रमाण से जानने । तात्पर्य यह है, कि सम्यक्त्वादि निज शुद्ध गुण-स्वरूप जो शुद्धात्मा है, वही उपादेयहै ॥६१॥