
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ देहस्य जरामरणं द्रष्टवा मा भयं जीव कार्षीरिति निरूपयति - [देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि] देहसंबन्धि द्रष्टवा । किम् । जरा-मरणम् । मा भयं कार्षीः हे जीव । अयमर्थो यद्यपि व्यवहारेण जीवस्य जरामरणं तथापि शुद्धनिश्चयेन देहस्य न च जीवस्येति मत्वा भयं मा कार्षीः । तर्हि किं कुरु । [जोअजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि] यः कश्चिदजरामरो जरामरणरहितब्रह्मशब्दवाच्यः शुद्धात्मा । कथंभूतः । परः सर्वोत्कृष्टस्तमित्थंभूतं परं ब्रह्मस्वभावमात्मानं जानीहि पञ्चेन्द्रिय-विषयप्रभृतिसमस्तविकल्पजालं मुक्त्वा परमसमाधौ स्थित्वा तमेव भावयेति भावार्थः ॥७१॥ आगे ऐसा कहते हैं कि हे जीव, तू जरा-मरण देह के जानकर डर मत कर - यद्यपि व्यवहारनय से जीव के जरा-मरण हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से जीव के नहीं है, देह के हैं, ऐसा जानकर भय मत कर, तू अपने चित्त में ऐसा समझ, कि जो कोई जरा-मरण रहित अखंड परब्रह्म है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा तू अपना स्वभाव जान । पाँच इन्द्रियों के विषय को और समस्त विकल्पजालों को छोड़कर परमसमाधि में स्थिर होकर निज आत्मा का ही ध्यान कर, यह तात्पयार्थ हुआ ॥७१॥ |