
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अत ऊर्ध्वं पूर्वोक्त न्यायेन सम्यग्द्रष्टिर्भूत्वा मिथ्याद्रष्टिभावनाया प्रतिपक्षभूतां याद्रशीं भेदभावनां करोति ताद्रशीं क्रमेण सूत्रसप्तकेन विवृणोति - आत्मा गौरो न भवति रक्तो न भवति आत्मा सूक्ष्मोऽपि न भवति स्थूलोऽपि नैव ।तर्हि किंविशिष्टः । ज्ञानी ज्ञानस्वरूपः ज्ञानेन करणभूतेन पश्यति । अथवा 'णाणिउ जाणइजोइं' इति पाठान्तरं, ज्ञानी योऽसौ योगी स जानात्यात्मानम् । अथवा ज्ञानी ज्ञानस्वरूपेणआत्मा । कोऽसौ जानाति । योगीति । तथाहि - कृष्णगौरादिकधर्मान् व्यवहारेण जीवसंबद्धानपितथापि शुद्धनिश्चयेन शुद्धात्मनो भिन्नान् कर्मजनितान् हेयान् वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी स्वशुद्धात्मतत्त्वे तान् न योजयति संबद्धान्न करोतीति भावार्थः ॥८६॥ इसके बाद पूर्व-कथित रीति से सम्यग्दृष्टि होकर मिथ्यात्व की भावना से विपरीत जैसी भेद-विज्ञान की भावना को करता है, वैसी भेद-विज्ञान-भावना का स्वरूप क्रम से सात दोहा-सूत्रों में कहते हैं - ये श्वेत काले आदि धर्म व्यवहारनय से शरीर के सम्बन्ध से जीव के कहे जाते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्धात्मा से जुदे हैं, कर्म-जनित हैं, त्यागने योग्य हैं । जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी है, वह निज शुद्धात्म-तत्त्व में इन धर्मों को नहीं लगाता, अर्थात् इनको अपने नहीं समझता है ॥८६॥ |