+ आत्मध्यान किसी तीर्थ, गुरु, देव से भी उत्कृष्ट -
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि ।
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ॥95॥
अन्यद् एव तीर्थ मा याहि जीव अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व ।
अन्यद् एव देवं मा चिन्तय त्वं आत्मानं विमलं मुक्त्वा ॥९५॥
अन्वयार्थ : [जीव आत्मानं विमलं मुक्तवा] हे जीव निर्मल आत्मा को छोड़कर [त्वं अन्यद् एव] तू दूसरे [तीर्थं मायाहि] तीर्थ को मत जा, [अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व] दूसरे गुरु को मत सेव, [अन्यद् एव देवं मा चिन्तय] अन्य देव को मत ध्या ।
Meaning : O Soul ! do not regard anything other than the pure Atman as the Tirtha (an object of worship or pilgrimage); do not serve any teacher other than the pure Atman; and do not think of God as other than the pure Atman See the pure Atman within thyself.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ निश्चयेन वीतरागभावपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयतीर्थः निश्चयगुरुर्निश्चयदेव इतिकथयति -

अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि अण्णु जि देउ म चिंतितुहुं अन्यदेव तीर्थं मा गच्छ हे जीव अन्यदेव गुरुं मा सेवस्व अन्यदेव देवं मा चिन्तय त्वम् । किं कृत्वा । [अप्पा विमलु मुएवि] मुक्त्वा त्यक्त्वा । कम् । आत्मानम् । कथंभूतम् । विमलंरागादिरहितमिति । तथाहि । यद्यपि व्यवहारनयेन निर्वाणस्थानचैत्यचैत्यालयादिकंतीर्थभूतपुरुषगुणस्मरणार्थं तीर्थं भवति, तथापि वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपनिश्छिद्रपोतेन संसारसमुद्रतरणसमर्थत्वान्निश्चयनयेन स्वात्मतत्त्वमेव तीर्थं भवति १यदुपदेशात्पारंपर्येणपरमात्मतत्त्वलाभो भवतीति । व्यवहारेण शिक्षादीक्षादायको यद्यपि गुरुर्भवति, तथापिनिश्चयनयेन पञ्चेन्द्रियविषयप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामपरित्यागकाले संसारविच्छित्तिकारणत्वात् स्वशुद्धात्मैव गुरुः । यद्यपि प्राथमिकापेक्षया सविकल्पापेक्षया चित्तस्थितिकरणार्थंतीर्थंकरपुण्यहेतुभूतं साध्यसाधकभावेन परंपरया निर्वाणकारणं च जिनप्रतिमादिकं व्यवहारेण देवो भण्यते, तथापि निश्चयनयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिपरमसमाधिकाले स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति । एवं निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यसाधकभावेन तीर्थगुरुदेवतास्वरूपंज्ञातव्यमिति भावार्थः ॥९५॥


आगे निश्चयनय से वीतराग भावरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही निश्चयतीर्थ, निश्चयगुरु, निश्चयदेव है, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि व्यवहारनय से मोक्ष के स्थानक सम्मेदशिखर आदि व जिनप्रतिमा जिनमंदिर आदि तीर्थ हैं, क्योंकि वहाँ से गये महान् पुरुषों के गुणों की याद होती है, तो भी वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप छेद रहित जहाज द्वारा संसाररूपी समुद्र के तरने को समर्थ जो निज आत्म-तत्त्व है, वही निश्चय से तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परा से परमात्म-तत्त्व का लाभ होता है । यद्यपि व्यवहारनय से दीक्षा-शिक्षा का देनेवाला दिगंबर गुरु होता है, तो भी निश्चयनय से विषय-कषाय आदिक समस्त विभाव-परिणामों के त्यागने के समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसी से संसार की निवृत्ति होती है । यद्यपि प्रथम अवस्था में चित्त की स्थिरता के लिये व्यवहारनय से जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परंपरा से निर्वाण के कारण हैं, तो भी निश्चयनय से परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्प परम-समाधि के समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य नहीं । इसप्रकार निश्चय व्यवहारनय से साध्य-साधक-भाव से तीर्थ-गुरु-देव का स्वरूप जानना चाहिये । निश्चय-देव, निश्चय-गुरु, निश्चय-तीर्थ निज-आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और व्यवहार-देव जिनेन्द्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहार-गुरु महामुनिराज, व्यवहार-तीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक ये सब निश्चय के साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्था में आराधने योग्य हैं । तथा निश्चयनय से ये सब पदार्थ हैं, उनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परा से है ।

यहाँ श्रीपरमात्मप्रकाश अध्यात्म-ग्रंथ में निश्चय देव-गुरु-तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनाकर अनंत सिद्ध हुए और होवेंगे, ऐसा सारांश हुआ ॥९५॥