
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथैतदेव समर्थयति - [अप्पसहावि परिट्ठियहं] आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां पुरुषाणां, [एहउ होइ विसेसु] एषप्रत्यक्षीभूतो विशेषो भवति । एष कः । [दीसइ अप्पसहावि लहु] द्रश्यते परमात्मस्वभावेस्थितानां लघु शीघ्रम् । अथवा पाठान्तरं 'दीसइ अप्पसहाउ लहु' । द्रश्यते, स कः, आत्मस्वभावः कर्मतापन्नो, लघु शीघ्रम् । न केवलमात्मस्वभावो द्रश्यते लोयालोउ असेसुलोकालोकस्वरूपमप्यशेषं द्रश्यत इति । अत्र विशेषेण पूर्वसूत्रोक्त मेव व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञातव्यंयस्मात्तस्यैव वृद्धमतसंवादरूपत्वादिति भावार्थः॥१००॥ अब इसी बात का समर्थन (दृढ़) करते हैं - अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, 'अप्पसहाव लहु..' इसका अर्थ यह हैं, कि अपना स्वभाव शीघ्र दिख जाता है, और स्वभाव के देखने से समस्त लोक भी दिखता है । यहाँ पर भी विशेष करके पूर्व सूत्र-कथित चारों तरह का व्याख्यान जानना चाहिये, क्योंकि यही व्याख्यान बड़े-बड़े आचार्यों ने माना है ॥१००॥ |