
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ - [मुणिवरविंदहं हरिहरहं] मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां च [जो मणि णिवसइ देउ] योऽसौमनसि निवसति देवः आराध्यः । पुनरपि किंविशिष्टः । [परहं जि परतरु णाणमउ] परस्मादुत्कृष्टादपि अथवा परहं जि बहुवचनं परेभ्योऽपि सकाशादतिशयेन परः परतरः । पुनरपि कथंभूतः । ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः [सो वुच्चइ परलोउ] स एवंगुणविशिष्टःशुद्धात्मा परलोक इत्युच्यते इति । पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दैकस्वभाव आत्मा तस्यलोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थंः, अथवा लोक्यन्तेद्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकःपरश्चासौ लोकश्च परलोकः व्यवहारेण पुनः स्वर्गापवर्गलक्षणः परलोको भण्यते । अत्रयोऽसौ परलोकशब्दवाच्यः परमात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥११०॥ आगे ऐसा कहते हैं कि भगवान् का ही नाम परलोक है - परलोक शब्द का अर्थ ऐसा है कि पर अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग चिदानंद शुद्ध-स्वभाव आत्मा, उसका लोक अर्थात् अवलोकन निर्विकल्प समाधि में अनुभवना वह परलोक है । अथवा जिसके परमात्मस्वरूप में या केवलज्ञान में जीवादि पदार्थ देखे जावें, इसलिये उस परमात्मा का नाम परलोक है । अथवा व्यवहारनय से स्वर्ग-मोक्ष को परलोक कहते हैं । स्वर्ग और मोक्ष का कारण भगवान का धर्म है, इसलिये केवली भगवान् को परलोक कहते हैं । परमात्मा के समान अपना निज आत्मा है, वही परलोक है, वही उपादेय है ॥११०॥ |