+ द्रव्यों के नाम -
जीउ सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण ।
पोग्गलु धम्माहम्मु णहु कालेँ सहिया भिण्ण ॥17॥
जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व पञ्च अचेतनानि अन्यानि ।
पुद्गलः धर्माधर्मौ नभः कालेन सहितानि भिन्नानि ॥१७॥
अन्वयार्थ : [जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व] जीव को चेतन-द्रव्य जान, [अन्यानि पुद्गलः धर्माधर्मौ] और बाकी पुद्गल धर्म, अधर्म, [नभः कालेन सहिता] आकाश और काल सहित जो [पंच अचेतनानि] पाँच हैं, वे अचेतन हैं और [अन्यानि भिन्नानि] जीव से भिन्न हैं, तथा ये सब अपने-अपने लक्षणों से आपस में भिन्न हैं ।
Meaning : Chidananda (knower and happy), Aik-Svabhava (pure by nature, having no adulteration of duality) Jiva Dravya (soul) is Chaitanya (possessing consciousness or intelligence); and the remaining five Dravyas, that is, Pudgala (matter), Dharma (the element which helps souls and matter in motion), Adharma (the element which assists in the cessation of movement), Akasha (space), and Kala (time) are Achaitanya (devoid of consciousness-or intelligence),--these six Dravyas, possessing their own Lakshanas (distinguishing attributes), are existing in the same place.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ तेषामेव षड्द्रव्याणां संज्ञां कथयति चेतनाचेतनविभागं च कथयति -

जीउ इत्यादि । [जीउ सचेयणु दव्वु] चिदानन्दैकस्वभावो जीवश्चेतनाद्रव्यं भवति । [मुणि] मन्यस्व जानीहि त्वम् । [पंच अचेयण] पञ्चाचेतनानि [अण्ण] जीवादन्यानि । तानि कानि । [पोग्गलु धम्माहम्मु णहु] पुद्गलधर्माधर्मनभांसि कथंभूतानि तानि [कालें सहिया] कालद्रव्येण सहितानि । पुनरपि कथंभूतानि । [भिण्ण] स्वकीयस्वकीयलक्षणेन परस्परं भिन्नानि इति । तथाहि ।द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतरागभेदेन । सरागसम्यक्त्वलक्षणं कथ्यते । प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति । वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतंतदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपंनिश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः कस्मादिति चेत् । निजशुद्धात्मैवोपादेय इतिरुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तिर्थंकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः ।तत्र परिहारमाह । तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतुचारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते ।शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्हत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपं स्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्याय-साधूनां विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञावीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति । वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः ॥१७॥


आगे उन छह द्रव्यों के नाम कहते हैं -

सम्यक्त्व दो प्रकार का है, एक सराग-सम्यक्त्व दूसरा वीतराग-सम्यक्त्व, सराग-सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं । प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्म की रुचि तथा जगत से अरुचि, अनुकंपा परजीवों को दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव-गुरु-धर्म की तथा छह द्रव्यों की श्रद्धा इन चारों का होना वह व्यवहार-सम्यक्त्वरूप सराग-सम्यक्त्व है, और वीतराग-सम्यक्त्व जो निश्चय-सम्यक्त्व वह निज शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्र से तन्मयी है ।

यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट ने प्रश्न किया । हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व का कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व है, वह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है । क्योंकि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व तो गृहस्थ में तीर्थंकर परमदेव भरत चक्रवर्ती और राम, पांडवादि बड़े-बड़े पुरुषों के रहता है, लेकिन उनके वीतराग-चारित्र नहीं है । यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतराग-चारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह प्रश्न किया ।

उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं । उन महान् (बड़े) पुरुषों के शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी भावनारूप निश्चय-सम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं है । जब तक महाव्रत का उदय नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्मा की अखंड भावना से रहित हुए भरत, सगर, राघव, पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धों के गुण-स्तवन वस्तु-स्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञा के आराधक जो महान पुरुष, आचार्य, उपाध्याय, साधु उनको भक्ति से आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं । विषय कषायरूप खोटे ध्यान के रोकने के लिये तथा संसार की स्थिति के नाश करने के लिये ऐसी शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ राग के संबंध से सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चय-सम्यक्त्व भी कहा जा सकता है, क्योंकि वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व के परम्पराय साधकपना है । अब वास्तव में विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्था में इनके सराग-सम्यक्त्व ही हैऔर जो सराग-सम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ॥१७॥