
श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ तेषामेव षड्द्रव्याणां संज्ञां कथयति चेतनाचेतनविभागं च कथयति - जीउ इत्यादि । [जीउ सचेयणु दव्वु] चिदानन्दैकस्वभावो जीवश्चेतनाद्रव्यं भवति । [मुणि] मन्यस्व जानीहि त्वम् । [पंच अचेयण] पञ्चाचेतनानि [अण्ण] जीवादन्यानि । तानि कानि । [पोग्गलु धम्माहम्मु णहु] पुद्गलधर्माधर्मनभांसि कथंभूतानि तानि [कालें सहिया] कालद्रव्येण सहितानि । पुनरपि कथंभूतानि । [भिण्ण] स्वकीयस्वकीयलक्षणेन परस्परं भिन्नानि इति । तथाहि ।द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतरागभेदेन । सरागसम्यक्त्वलक्षणं कथ्यते । प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति । वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतंतदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपंनिश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः कस्मादिति चेत् । निजशुद्धात्मैवोपादेय इतिरुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तिर्थंकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः ।तत्र परिहारमाह । तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतुचारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते ।शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्हत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपं स्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्याय-साधूनां विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञावीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति । वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः ॥१७॥ आगे उन छह द्रव्यों के नाम कहते हैं - सम्यक्त्व दो प्रकार का है, एक सराग-सम्यक्त्व दूसरा वीतराग-सम्यक्त्व, सराग-सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं । प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्म की रुचि तथा जगत से अरुचि, अनुकंपा परजीवों को दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव-गुरु-धर्म की तथा छह द्रव्यों की श्रद्धा इन चारों का होना वह व्यवहार-सम्यक्त्वरूप सराग-सम्यक्त्व है, और वीतराग-सम्यक्त्व जो निश्चय-सम्यक्त्व वह निज शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्र से तन्मयी है । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट ने प्रश्न किया । हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व का कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व है, वह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है । क्योंकि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व तो गृहस्थ में तीर्थंकर परमदेव भरत चक्रवर्ती और राम, पांडवादि बड़े-बड़े पुरुषों के रहता है, लेकिन उनके वीतराग-चारित्र नहीं है । यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतराग-चारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह प्रश्न किया । उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं । उन महान् (बड़े) पुरुषों के शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी भावनारूप निश्चय-सम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं है । जब तक महाव्रत का उदय नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्मा की अखंड भावना से रहित हुए भरत, सगर, राघव, पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धों के गुण-स्तवन वस्तु-स्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञा के आराधक जो महान पुरुष, आचार्य, उपाध्याय, साधु उनको भक्ति से आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं । विषय कषायरूप खोटे ध्यान के रोकने के लिये तथा संसार की स्थिति के नाश करने के लिये ऐसी शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ राग के संबंध से सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चय-सम्यक्त्व भी कहा जा सकता है, क्योंकि वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व के परम्पराय साधकपना है । अब वास्तव में विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्था में इनके सराग-सम्यक्त्व ही हैऔर जो सराग-सम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ॥१७॥ |