+ अखंड-प्रदेशी द्रव्य -
जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व ।
इयर अखंड वियाणि तुहुँ अप्प-पएसहिँ सव्व ॥22॥
जीवोऽपि पुद्गलः कालः जीव एतानि मुक्त्वा द्रव्याणि ।
इतराणि अखण्डानि विजानीहि त्वं आत्मप्रदेशैः सर्वाणि ॥२२॥
अन्वयार्थ : [जीव त्वं] हे जीव, तू [जीवः अपि पुद्गलः कालः] जीव और पुद्गल, काल [एतानि द्रव्याणि] इन (तीन) द्रव्यों को [मुक्त्वा इतराणि] छोड़कर दूसरे (धर्म, अधर्म, आकाश) [सर्वाणि] ये सब (तीन द्रव्य) [आत्मप्रदेशैः अखंडानि] अपने प्रदेशों से अखंडित हैं ।
Meaning : The three Dravyas other than Jiva (soul), Pudgala (matter) and Kala (time), that is, Dharma, Adharma and Akasha, are each of them only one and indivisible.

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथजीवपुद्गलकालद्रव्याणि मुक्त्वा शेषधर्माधर्माकाशान्येकद्रव्याणीति निरूपयति -

जीउ वि इत्यादि । [जीउ वि] जीवोऽपि [पुग्गलु] पुद्गलः [कालु] कालः [जिय] हे जीव [एमेल्लेविणु] एतानि मुक्त्वा [दव्व] द्रव्याणि [इयर] इतराणि धर्माधर्माकाशानि [अखंड] अखण्डद्रव्याणि [वियाणि] विजानीहि [तुहुं] त्वं हे प्रभाकरभट्ट । कैः कृत्वाखण्डानि विजानीहि । [अप्प-पएसहिं] आत्मप्रदेशैः । कतिसंख्योपेतानि [सव्व] सर्वाणि इति । तथाहि । जीवद्रव्याणि पृथक् पृथक्जीवद्रव्यगणनेनानन्तसंख्यानि पुद्गलद्रव्याणि तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि भवन्ति । धर्माधर्माकाशानिपुनरेकद्रव्याण्येवेति । अत्र जीवद्रव्यमेवोपादेयं तत्रापि यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शक्त्यपेक्षया सर्वे जीवाउपादेयास्तथापि व्यक्त्यपेक्षया पञ्च परमेष्ठिन एव, तेष्वपि मध्ये विशेषेणार्हत्सिद्धा एव तयोरपि मध्ये सिद्धा एव, परमार्थेन तु मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय इत्युपादेयपरंपरा ज्ञातव्येति भावार्थः ॥२२॥


आगे जीव, पुद्गल, काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक हैं, ऐसा कहते हैं -

जीव द्रव्य जुदा-जुदा जीवों की गणना से अनंत हैं, पुद्गल-द्रव्य उससे भीअनंतगुणे हैं, काल-द्रव्याणु असंख्यात हैं, धर्म-द्रव्य एक है, और वह लोक-व्यापी है, अधर्म-द्रव्य भी एक है, और वह लोक-व्यापी है, ये दोनों द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, और आकाश-द्रव्य अलोक-अपेक्षा अनंत-प्रदेशी है, तथा लोक-अपेक्षा असंख्यात-प्रदेशी हैं । ये सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों से सहित हैं, किसी के प्रदेश किसी से नहीं मिलते । इन छहों द्रव्यों में जीव ही उपादेय है । यद्यपि शुद्ध निश्चय से शक्ति की अपेक्षा सभी जीव उपादेय हैं, तो भी व्यक्ति कीअपेक्षा पंच-परमेष्ठी ही उपादेय हैं, उनमें भी अरहंत सिद्ध ही हैं, उन दोनों में भी सिद्ध ही हैं और निश्चयनय से मिथ्यात्वरागादि विभाव-परिणाम के अभाव में विशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा

जानना ॥२२॥