+ द्रव्यों के प्रदेश -
धम्माधम्मु वि एक्कु जिऊ ए जि असंख्य-पदेस ।
गयणु अणंत-पएसु मुणि बहु-विह पुग्गल-देस ॥24॥
धर्माधर्मौ अपि एकः जीवः एतानि एव असंख्यप्रदेशानि ।
गगनं अनन्तप्रदेशं मन्यस्व बहुविधाः पुद्गलदेशाः ॥२४॥
अन्वयार्थ : [धर्माधर्मौ अपि एकः जीवः] धर्मद्रव्य-अधर्म द्रव्य और एक जीव [एतानि एव] इन तीनों ही को [असंख्यप्रदेशानि मन्यस्व] असंख्यात प्रदेशी जानो, [गगनं अनंतप्रदेशं] आकाश अनंतप्रदेशी है, [पुद्गलप्रदेशाः बहुविधाः] और पुद्गल के प्रदेश बहुत प्रकार के हैं ।
Meaning : Both the Dharma and the Adharma Dravya are Asankhyat Pradeshi (extending over countless points); each Jiya (soul) is also Asankhyat Pradeshi, Akasha is Ananta Pradeshi (possessing infinite parts), and Pudgala, with reference to its Parmanu (particle or atom), is Eka Pradeshi (possessing one part alone), and with reference to its Skandhas (compounds) is Sankhyat Pradeshi (possessing parts which can be counted), Asankhyat Pradeshi (possessing countless parts) as well as Ananta Pardeshi (possessing infinite parts); each Kala-Anu (time-atom) is Eka Pradeshi (possessing one part only).

  श्रीब्रह्मदेव 

श्रीब्रह्मदेव : संस्कृत
अथ पञ्चास्तिकायसूचनार्थं कालद्रव्यमप्रदेशं विहाय कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशाभवन्तीति कथयति -

धम्माधम्मु वि इत्यादि । [धम्माधम्मु वि] धर्माधर्मद्वितयमेव [एक्कु जिउ] एको विवक्षितोजीवः । [ए जि] एतान्येव त्रीणि द्रव्याणि असंख्य-पदेश असंख्येयप्रदेशानि भवन्ति । [गयणु] गगनंअणंत-पएसु अनन्तप्रदेशं मुणि मन्यस्व जानीहि । [बहु-विह] बहुविधा भवन्ति । के ते । [पुग्गल-देस] पुद्गलप्रदेशाः । अत्र पुद्गलद्रव्यप्रदेशविवक्षया प्रदेशशब्देन परमाणवो ग्राह्याः न च क्षेत्रप्रदेशा इति । कस्मात् । पुद्गलस्यानन्तक्षेत्रप्रदेशाभावादिति । अथवा पाठान्तरम् । 'पुग्गलु तिविहुपएसु' । पुद्गलद्रव्ये संख्यातासंख्यातानन्तरूपेण त्रिविधाः प्रदेशाः परमाणवो भवन्तीति । अत्रनिश्चयेन द्रव्यकर्माभावादमूर्ता मिथ्यात्वरागादिरूपभावकर्मसंकल्पविकल्पाभावात् शुद्धिलोकाकाश-प्रमाणेनासंख्येयाः प्रदेशा यस्य शुद्धात्मनः स शुद्धात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपरिणतिकाले साक्षादुपादेय इति भावार्थः ॥२४॥


आगे पंचास्तिकाय के प्रगट करने के लिये काल-द्रव्य अप्रदेशी को छोड़कर अन्य पाँच-द्रव्यों में से किसके कितने प्रदेश हैं, यह कहते हैं -

जगत् में धर्म-द्रव्य तो एक ही है, वह असंख्यात-प्रदेशी है, अधर्म-द्रव्य भी एक है, असंख्यात-प्रदेशी है, जीव अनंत हैं, सो एक-एक जीव असंख्यात-प्रदेशी हैं, आकाश-द्रव्य एक ही है, वह अनंत-प्रदेशी है, ऐसा जानो । पुद्गल एक-प्रदेश से लेकर अनंत-प्रदेश तक है । एक परमाणु तो एक-प्रदेशी है, और जैसे-जैसे परमाणु मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रदेश भी बढ़ते जाते हैं, वे संख्यात / असंख्यात / अनंत प्रदेश तक जानने, अनंत परमाणु इकट्ठे होवें, तब अनंत प्रदेश कहे जाते हैं । अन्य द्रव्यों के तो विस्तार-रूप प्रदेश हैं, और पुद्गल के स्कन्धरूप प्रदेश हैं । पुद्गल के कथन में प्रदेश शब्द से परमाणु लेना, क्षेत्र नहीं लेना, पुद्गल का प्रचार लोक में ही है, अलोकाकाश में नहीं है, इसलिये अनंत क्षेत्र प्रदेश के अभाव होनेसे क्षेत्र-प्रदेश न जानने । जैसे-जैसे परमाणु मिल जाते हैं, वैसे-वैसे प्रदेशों की बढ़वारी जाननी । इसी दोहा के कथन में पाठांतर 'पुग्गलु तिविहु पएसु...' ऐसा है, उसका अर्थ यह है कि पुद्गल के संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओं के मेल से जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश, बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना । सूत्र में शुद्ध-निश्चय से द्रव्यकर्म के अभाव से यह जीवअमूर्तीक है, और मिथ्यात्व रागादिरूप भाव-कर्म संकल्प विकल्प के अभाव से शुद्ध है, लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात-प्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही वीतराग-निर्विकल्प-समाधि दशा में साक्षात् उपादेय है, यह जानना ॥२४॥