
दंसणपुव्वु हवेइ फु डु जं जीवहँ विण्णाणु ।
वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ॥35॥
दर्शनपूर्वं भवति स्फु टं यत् जीवानां विज्ञानम् ।
वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ॥३५॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [जीवानां] जीवों के [विज्ञानम्] ज्ञान है, वह [स्फुटं] स्पष्ट ही [दर्शनपूर्वं] दर्शन के बाद में [भवति] होता है, [वस्तुविशेषं जानन्] वस्तु को विशेष-रूप जाननेवाला है, [जीव] हे जीव [अविचलं] संशय विमोह विभ्रम से रहित [तत् ज्ञानम्] उस ज्ञान को [मन्यस्व] तू जान ।
Meaning : First comes Darshana and then Jnana which is that by which an object can be known in its particular aspect or detail.
श्रीब्रह्मदेव