जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यत: ।
तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्व-स्वभाव-बुभुत्सुया ॥2॥
यो जीवाजीवयोर्वेत्ति स्वरूपं परमार्थत: ।
सोऽजीव-परिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते ॥3॥
जीव-तत्त्व-निलीनस्य राग-द्वेष-परिक्षय: ।
तत: कर्माश्रयच्छेदस्तताे निर्वाण-संगम: ॥4॥
अन्वयार्थ : यत: जीवाजीवं द्वयं त्यक्त्वा अपरं न विद्यते, तत: स्व-स्वभावबुभुत्सया तल्लक्षणं ज्ञेयम् । य: परमार्थत: जीवाजीवयो: स्वरूपं वेत्ति स: अजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते । जीवतत्त्व-निलीनस्य राग-द्वेष-परिक्षय: तत: कर्माश्रयच्छेद: , तत: निर्वाण-संगम: ।
क्योंकि इस विश्व में जीव और अजीव इन दो द्रव्यों को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है । इसलिये अपने स्वरूप को जानने की इच्छा से जीव और अजीव द्रव्यों का लक्षण जानना चाहिए । जो साधक, जीव और अजीव तत्त्वों के स्वरूप को परमार्थरीति से जानता है, वह अजीव तत्त्व के परिहार पूर्वक जीव तत्त्व में निमग्न हो जाता है ।