+ ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता -
चक्षुर्गृह्णद्यथा रूपं रूपरूपं न जायते ।
ज्ञानं जानत्तथा ज्ञेयं ज्ञेयरूपं न जायते ॥22॥
अन्वयार्थ : यथा चक्षु: रूपं गृह्णत् रूपरूपं न जायते तथा ज्ञेयं जानत् ज्ञानं ज्ञेयरूपं न जायते ।
जिसप्रकार आँख रंग-रूप को ग्रहण करती/जानती हुई रंग-रूपमय नहीं हो जाती, उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञेयरूप नहीं होता; परन्तु ज्ञानरूप ही रहता है ।