सर्वार्थसिद्धि :
अवग्रह आदि क्रियाविशेषों का प्रकरण है उनकी अपेक्षा 'बह्वादीनां सेतराणां' इस प्रकार कर्मकारक का निर्देश किया है। 'बहु' शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकार का है। इन दोनों का यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची बहु शब्द यथा – एक, दो, बहुत। वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा – बहुत भात, बहुत दाल। 'विध' शब्द प्रकारवाची है। सूत्र में 'क्षिप्र' शब्द का ग्रहण, जल्दी होने वाले ज्ञान के जताने के लिए किया है। जब पूरी वस्तु प्रकट न होकर कुछ प्रकट रहती है और कुछ अप्रकट तब वह अनि:सृत कही जाती है। यहाँ अनि:सृत अर्थ ईषद् नि:सृत है, अत: इसका ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'अनि:सृत' पद दिया है। जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करने के लिए 'अनुक्त' पद दिया है। जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है उसके जताने के लिए 'ध्रुव' पद दिया है। इनसे प्रतिपक्षभूत पदार्थों का संग्रह करने के लिए 'सेतर' पद दिया है। बहुत का अवग्रह, अल्प का अवग्रह, बहुविध का अवग्रह, एकविध का अवग्रह, क्षिप्रावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, अनि:सृत का अवग्रह, नि:सृत का अवग्रह, अनुक्त का अवग्रह, उक्त का अवग्रह, ध्रुव का अवग्रह और अध्रुव का अवग्रह ये अवग्रह के बारह भेद हैं। इसी प्रकार ईहादिक में से प्रत्येक बारह-बारह भेद हैं। ये सब अलग-अलग पाँच इन्द्रिय और मन के द्वारा उत्पन्न कराने चाहिए। इनमें-से बहु अवग्रह आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकर्ष से होते हैं। इतर नहीं। बहु आदि श्रेष्ठ हैं, अत: उनका प्रथम ग्रहण किया है। कुछ आचार्यों के मत से क्षिप्रानि:सृत के स्थान में 'क्षिप्रनि:सृत' ऐसा पाठ है। वे ऐसा व्याख्यान करते हैं कि श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा शब्द को ग्रहण करते समय वह मयूर का है अथवा कुरर का है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्वरूप के आश्रय से ही जानता है। शंका – ध्रुवावग्रह और धारणा में क्या अन्तर है ? समाधान – क्षयोपशम की प्राप्ति के समय विशुद्ध परिणामों की परम्परा के कारण प्राप्त हुए क्षयोपशम से प्रथम समय में जैसा अवग्रह होता है वैसा ही द्वितीयादिक समयों में भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक। यह ध्रुवावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामों के मिश्रण से क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है तब वह कदाचित् बहुत का होता है, कदाचित् अल्प का होता है, कदाचित् बहुविध का होता है और कदाचित् एकविध का होता है। तात्पर्य यह कि उनमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्रुवावग्रह कहलाता है किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलने के कारणभूत ज्ञान को कहते हैं, अत: ध्रुवावग्रह और धारणा में बड़ा अन्तर है। यदि अवग्रह आदि बहु आदिक को जानते हैं तो बहु आदिक किसके विशेषण हैं। अब इसी बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं – |
राजवार्तिक :
1. बहु शब्द संख्यावाची भी है और परिमाणवाचक भी। जैसे एक दो बहुत आदि, बहुत दाल बहुत भात आदि । 2-8. प्रश्न – जब एक ज्ञान एक ही अर्थ को ग्रहण करता है तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता ? उत्तर – यदि एक ज्ञान एक ही अर्थ को विषय करता है तो उससे सदा एक ही प्रत्यय होगा। नगर, वन, सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। नगर आदि संज्ञाएँ और व्यवहार समुदायविषयक है। अतः समुदायविषयक समस्त व्यवहारों का लोप ही हो जायगा। एकार्थग्राहि ज्ञानपक्ष में यदि पूर्वज्ञान के काल में ही उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है तो 'एक मन होने से एक अर्थविषयक ही ज्ञान होता है' इस सिद्धान्त का विरोध हो जायगा । जैसे एक ही मन अनेक ज्ञानों को उत्पन्न कर सकता है उसी तरह एक ज्ञान को अनेक अर्थों को विषय करनेवाला मानने में क्या आपत्ति है ? यदि अनेक ज्ञानों को एककालीन मानकर अनेकार्थों की उपलब्धि एक साथ की जाती है ; तो 'एक का ज्ञान एक ही अर्थ को जानता है' इस सिद्धान्त का खंडन हो जायगा। यदि पूर्व ज्ञान के निवृत्त होने पर उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाती है तो सदा एकार्थ विषयक ज्ञान की सत्ता रहने से 'यह इससे छोटा है, बड़ा है' इत्यादि आपेक्षिक , व्यवहारों का लोप हो जायगा। एकार्थवादिज्ञानवाद में मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियों में होनेवाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त आपेक्षिक व्यवहारों का लोप हो जायगा क्योंकि कोई भी ज्ञान दो को नहीं जानेगा। इस पक्ष में उभयार्थग्राही संशयज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि स्थाण विषयक ज्ञान पुरुष को नहीं जानेगा तथा न पुरुष विषयक ज्ञान स्थाणु को । इस वाद में किसी भी इष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जैसे कोई चित्रकार पूर्ण कलश का चित्र बना रहा है तो उसके प्रतिक्षणवर्ती ज्ञान पूर्वापर का अनुसन्धान तो कर ही नहीं सकेंगे, ऐसी दशा में पूर्णकलश का परिपूर्ण चित्र नहीं बन सकेगा। इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसंख्या-विषयक प्रत्यय नहीं हो सकेंगे; क्योंकि कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहों को जान ही नही सकेगा । सन्तान या संस्कार की कल्पना में दो प्रश्न होते हैं कि वे ज्ञानजातीय होंगे या अज्ञानजातीय ? अज्ञानजातीय से तो अपना कोई प्रयोजन सिद्ध होगा ही नहीं । ज्ञानजातीय होकर यदि इनने भी एक ही अर्थ को जाना तो समस्त दूषण ज्यों-के-त्यों बने रहेंगे। यदि अनेकार्थ को जानते हैं तो एकार्थवाली प्रतिज्ञा की हानि हो जायगी। 9-15. विध शब्द प्रकारार्थक है, बहुविध अर्थात् बहुत प्रकारवाले पदार्थ । क्षिप्र अर्थात् शीघ्रता से । अनिःसृत का अर्थ है वस्तु के कुछ भागों का दिखना, पूरी वस्तु का न दिखना । अनुक्त का अर्थ है कहने के बिना ही अभिप्राय से जान लेना। ध्रुव अर्थात् यथार्थ ग्रहण । सेतर का अर्थ है इनसे उलटे पदार्थ, अर्थात् अल्प, अल्पविध, चिर, निःसृत उक्त और अध्रुव । 'इन सबके अवग्रहादि होते हैं। इस प्रकार का कर्म-निर्देश अवग्रह आदि ज्ञानों की अपेक्षा समझना चाहिये। 16. बहु आदि का शब्दों से निर्देश इसलिए किया है कि इनके ज्ञान में ज्ञानावरण के क्षयोपशम की विशुद्धि अत्यधिक अपेक्षित होती है। इन बारह प्रकार के अर्थों के अवग्रहादि प्रत्येक इन्द्रिय और मन के द्वारा होते हैं। जैसे श्रोत्रेन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय का प्रकृष्ट क्षयोपशम होने पर तदनुकूल अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से उन-उन अङ्ग-उपाङ्गों के सद्भाव से कोई श्रोता एक साथ तत, वितत, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दों को सुनता है। क्षयोपशमादि की न्यूनता में एक या अल्प शब्द को सुनता है। प्रकृष्ट क्षयोपशमादि से ततादि शब्दों के एक-दो-तीन संख्यात असंख्यात आदि प्रकारों को ग्रहण कर बहुविध शब्दों को जानता है । क्षयोपशमादि की न्यूनता में एक प्रकार के ही शब्दों को सुनता है। क्षयोपशम की विशुद्धि में क्षिप्र-शीघ्रता से शब्दों को सुनता है। क्षयोपशम की न्यूनता में अक्षिप्र-देरी से शब्द को सुनता है। क्षयोपशम की विशुद्धि में अनिःसृत-पूरे वाक्य का उच्चारण न होने पर भी उसका ज्ञान कर लेता है । निःसृत अर्थात् पूर्ण रूप से उच्चारित शब्द का ज्ञान कर लेना। क्षयोपशम की प्रकृष्टतामें एक भी शब्द का उच्चारण किए बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्द को जान लेता है। अथवा वीणा आदि के तारों के सम्हालते समय ही यह जान लेना कि 'इसके द्वारा यह राग बजाया जायगा' अनुक्त ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्द को जानना । ध्रुव-ग्रहण में जैसा प्रथम समय में ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है न कम और न अधिक, परन्तु अध्रुवग्रहण में क्षयोपशम की विशुद्धि और अविशुद्धि के अनुसार कम और अधिक रूप से ज्ञान होता है, कभी बहुत शब्दों को जानना हो तो कभी एक को, कभी क्षिप्र तो कभी देरी से, कभी नि:सृत तो कभी अनिःसृत आदि । प्रश्न – बहु और बहुविध में क्या अन्तर है ? उत्तर – जैसे कोई बहुत शास्त्रों का सामान्यरूप से व्याख्यान करता है और दूसरा उन्हीं शास्त्रों की अनेकविध व्याख्याएँ करता है, उसी तरह ततादि शब्दों का सामान्य ग्रहण बहुग्रहण है तथा उन्हीं का अनेकगुणी विशेषताओं से ज्ञान करना बहुविध ग्रहण है । प्रश्न – उक्त और निःसृत में क्या विशेषता है ? उत्तर – परोपदेश पूर्वक शब्दों का ग्रहण उक्त है और अपने-आप ज्ञान करना नि.सृत है। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा भी बह्वादि बारह प्रकार के अर्थों का ग्रहण होता है। पंचरंगी साड़ी के एक छोर के रंगों को देखकर पूरी साड़ी के रंगों का ज्ञान कर लेना अनिःसृत ग्रहण है। सफेद काले आदि रंगों के मिश्रण से जो रंग तैयार होते हैं उनके सम्बन्ध में बिना कहे हुए अभिप्रायमात्र से यह जान लेना कि 'आप इन दोनों रंगों के मिश्रण से यह रंग बनायेंगे' अनुक्त रूप ग्रहण है । अथवा अन्य-देश में रखे हुए पंचरंगे वस्त्र के सम्बन्ध में अभिप्रायमात्र से यह जान लेना कि आप इन रंगों का कथन करेंगे अनुक्त-ग्रहण है। दूसरे के अभिप्राय के बिना स्वयं अपने क्षयोपशमानुसार रूप को जानना उक्त ग्रहण है। अन्य बहु आदि विकल्पों की व्याख्या सरल है। इसी तरह प्राणादि इन्द्रियों में भी लगा लेना चाहिये। 17. प्रश्न – स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी अर्थात् पदार्थों से सम्बद्ध होकर ज्ञान करनेवाली हैं अतः इनसे अनिःसृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते? उत्तर – इन इन्द्रियों से किसी न किसी रूप में पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी को सुदूरवर्ती गुड़ आदि के रस और गन्ध का ज्ञान सूक्ष्म परमाणुओं के सम्बन्ध हमलोगों को अनिःसृत और अनुक्त अवग्रहादि श्रुतज्ञान की अपेक्षा से होते हैं क्योंकि इनमें परोपदेश अपेक्षित होता है । शास्त्र में श्रुतज्ञान के भेदप्रभेद के प्रकरण में लब्ध्यक्ष के चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन और मन के भेद से छह भेद किये हैं, इसलिए इन लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञानों से उन-उन इन्द्रियों द्वारा अनिःसृत और अनुक्त आदि का विशिष्ट अवग्रहादि ज्ञान होता रहता है। |