+ क्षायोपशमिक भाव के भेद -
ज्ञानाज्ञानदर्शन लब्धयश्‍चतुस्त्रित्रि पञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्र संयमासंयमाश्‍च ॥5॥
अन्वयार्थ : क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं - चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्‍यक्‍त्‍व, चारित्र और संयमासंयम ॥५॥
Meaning : (The eighteen kinds are) knowledge, wrong knowledge, perception, and attainment, of four, three, three, and five kinds, and right faith, conduct, and mixed disposition of restraint and non-restraint.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

जिनके चार, तीन, तीन और पाँच भेद हैं वे चार, तीन, तीन और पाँच भेदवाले कहलाते हैं । इस सूत्रमें 'यथाक्रमम्' पद की अनुवत्ति होती है, जिससे चार आदि पदों के साथ ज्ञान आदि पदों का क्रम से सम्‍बन्‍ध होता है । यथा - चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन और पाँच लब्धियाँ । वर्तमान काल में सर्वघाती स्‍पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय होनेसे और आगामी काल की अपेक्षा उन्‍हीं का सदवस्‍था रूप उपशम होने से देशघाती स्‍पर्द्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है । इन पूर्वोक्त भावोंमें-से ज्ञान आदि भाव अपने-अपने आवरण और अन्‍तराय कर्म के क्षयोपशम से होते हैं ऐसा व्‍याख्‍यान यहाँ कर लेना चाहिए । सूत्र में आये हुए सम्‍यक्‍त्‍व-पद से वेदक सम्‍यक्‍त्‍व लेना चाहिए । तात्‍पर्य यह है ‍-- चार अनन्‍तानुबन्‍धी कषाय, मिथ्‍यात्‍व और सम्‍यग्मिथ्‍यात्‍व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्‍था-रूप उपशम से देशघाती स्‍पर्धकवाली सम्‍यक्‍त्‍व प्रकृति के उदय में जो तत्त्‍वार्थ-श्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्‍यक्‍त्‍व है । अनन्‍तानुबन्‍धी, अप्रत्‍याख्‍यानावरण और प्रत्‍याख्‍यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्‍हीं के सदवस्‍थारूप उपशम होने से तथा चार संज्‍वलनों में-से किसी एक देशघाती प्रकृति के उदय होने पर और नौ नोकषायों का यथासम्‍भव उदय होने पर जो संसार से पूरी निवृत्तिरूप परिणाम होता है वह क्षायोपशमिक चारित्र है । अनन्‍तानुबन्‍धी और अप्रत्‍याख्‍यानावरण इन आठ कषायों के उदयाभावी क्षय होन से और सदवस्‍थारूप उपशम होने से तथा नौ नोकषायों के यथासम्‍भव उदय होने पर जो विरताविरत-रूप परिणाम होता है वह संयमा-संयम कहलाता है ।

अब जो इक्‍कीस प्रकारका औदयिक भाव कहा है उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1-2. चतुः त्रि आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके पीछे भेद शब्द से अन्य पदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास करना चाहिए। यहां सूत्र में 'त्रि' शब्द दो बार आया है अतः द्वन्द्व का अपवाद करके एकशेष नहीं किया गया है; क्योंकि एक त्रि संख्या से अर्थबोध नहीं होता, यहां अन्यपदार्थ प्रधान है और त्रि शब्द को पृथक् कहने का विशेष प्रयोजन भी है । 'चार प्रकार का ज्ञान, तीन अज्ञान' आदि अनुक्रम से सम्बन्ध ज्ञापन कराने के लिए यहां 'यथाक्रम' शब्द का अनुवर्तन 'द्विनवाष्टा' सूत्र से कर लेना चाहिए। सपना

3. उदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय होने पर, अनुदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय होने पर क्षायोपशमिक भाव होते हैं।

4. स्पर्धक - उदय प्राप्त कर्म के प्रदेश अभव्यों के अनन्तगुणें तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। उनमें से सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभाग का बुद्धि के द्वारा उतना सूक्ष्म विभाग किया जाय जिससे आगे विभाजन न हो सकता हो। सर्वजीवराशि के अनन्तगुण प्रमाण ऐसे सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों की राशि को एक वर्ग कहते हैं। इसी तरह सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों के, जीवराशि से अनन्तगुण प्रमाण, राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए । इन समगुणवाले समसंख्यक वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं । पुनः एक अविभाग परिच्छेद अधिक गुणवालों के सर्वजीवराशि की अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए। उन वर्गों के समुदाय को वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह एक एक अविभाग परिच्छेद बढ़ाकर वर्ग और वर्ग-समूहरूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जबतक एक अधिक परिच्छेद मिलता जाय । इन क्रमहानि और क्रमवृद्धिवाली वर्गणाओं के समुदाय को एक स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो, तीन, चार, संख्यात और असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिकवाले ही मिलते हैं। फिर उनमें से पूर्वोक्त क्रम से समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए । इस तरह जहां तक एक-एक अधिक परिच्छेद का लाभ हो वहां तक की वर्गणाओं के समूह का दूसरा स्पर्धक बनता है । इसके आगे दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलेंगे किन्तु अनन्तगुण अधिक ही मिलते हैं। इस तरह समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणाओं के समूहरूप स्पर्धक एक उदयस्थान में अभव्यों से अनन्तगुणे तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं।

5. वीर्यान्तराय और मतिश्रुतज्ञानावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयक्षय और आगामी का सदवस्था उपशम होने पर तथा देशघाति स्पर्धकों का उदय होने पर क्षायोपशमिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। देशघाति स्पर्धकों के अनुभागतारतम्य से क्षयोपशम में भेद होता है । इसी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान भी क्षायोपशमिक होते हैं।

6. मिथ्यात्वकर्म के उदय से मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान होते हैं।

7. चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन अपने-अपने आवरणों के क्षयोपशम से होते हैं।

8. दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदि के क्षयोपशम से होती हैं। अनन्तानुबन्धी चार कषाय, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा सम्यक्त्व नामक देशघाति प्रकृति के उदय में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह वेदक भी कहलाता है । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा चार संज्वलनों में से किसी एक कषाय और नव नोकषायों का यथासंभव उदय होनेपर क्षायोपशमिक चारित्र होता है। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानरूप आठ कषायों का उदयक्षय और सदवस्था उपशम, प्रत्याख्यान कषाय का उदय, संज्वलन के देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायों का उदय होने पर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करनेवाला क्षायोपशमिक संयमासंयम होता है ।

9. क्षायोपशमिक संज्ञित्व भाव नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने के कारण मतिज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है । सम्यङमिथ्यात्व यद्यपि दूध पानी की तरह उभयात्मक है फिर भी सम्यक्त्वपना उसमें विद्यमान होने से सम्यक्त्व में अन्तर्भूत हो जाता है । योग का वीर्यलब्धि में अन्तर्भाव हो जाता है । अथवा, च शब्द से इन भावों का संग्रह हो जाता है। पंचेन्द्रियत्व समान होने पर भी जिसके संज्ञिजाति नामकर्म के उदय के साथ ही नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशम होता है वही संज्ञी होता है, अन्य नहीं।