सर्वार्थसिद्धि :
द्रव्य और पर्याय की प्राधान्य विवक्षा में स्पर्शादि शब्दों की क्रमसे कर्मसाधन और भावसाधनमें सिद्धि जानना चाहिए। जब द्रव्यकी अपेक्षा प्रधान रहती है तब कर्मनिर्देश होता है। जैसे – जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श है, जो स्वादको प्राप्त होता है वह रस है, जो सूँघा जाता है वह गन्ध है जो देखा जाता है वह वर्ण है और जो शब्दरूप होता है वह शब्द है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक द्रव्य ठहरते हैं। तथा जब पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भावनिर्देश होता है। जैसे – स्पर्शन स्पर्श है, रसन रस है, गन्धन गन्ध है, वर्णन वर्ण है और शब्दन शब्द है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक धर्म निश्चित होते हैं। इन स्पर्शादिकका क्रम इन्द्रियोंके क्रमसे ही व्याख्यात है। अर्थात् इन्द्रियोंके क्रमको ध्यानमें रखकर इनका क्रमसे कथन किया है। आगे कहते हैं कि मन अनवस्थित है, इसलिए वह इन्द्रिय नहीं। इस प्रकार जो मन के इन्द्रियपनेका निषेध किया है, सो यह मन उपयोगका उपकारी है या नहीं ? मन भी उपकारी है, क्योंकि मनके बिना स्पर्शादि विषयोंमें इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धि करनेमें समर्थ नहीं होती। तो क्या इन्द्रियोंकी सहायता करना ही मनका प्रयोजन है या और भी इसका प्रयोजन है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं – |
राजवार्तिक :
1. स्पर्श आदि शब्द द्रव्यविवक्षा में कर्मसाधन और पर्यायविवक्षा में भावसाधन होते हैं। द्रव्यविवक्षा में इन्द्रियों से द्रव्य गृहीत होता है उससे भिन्न स्पर्शादि तो पाये ही नहीं जाते, अतः 'स्पृश्यते इति स्पर्श: - जो छुआ जाय वह स्पर्श' ऐसी कर्मसाधन व्युत्पत्ति द्रव्यपरक हो जाती है। पर्यायविवक्षा में उदासीन भाव का भी कथन होता है अतः 'स्पर्शनं स्पर्शः' आदि भावसाधन में व्युत्पत्ति बन जाती है। यद्यपि परमाणुओं के स्पर्शादि इन्द्रियग्राह्य नहीं है फिर भी उनके कार्यभूत स्थूल पदार्थों में स्पर्शादि का परिज्ञान होता है अतः उनमें भी स्पर्शादि की सत्ता निर्विवाद है। 2-3. प्रश्न – 'तदर्थाः' में 'तत्' शब्द इन्द्रियसापेक्ष होने से असमर्थ हो जाता है अतः उसका अर्थ शब्द से समास नहीं हो सकता। उत्तर – जैसे 'देवदत्तस्य गरुकलम' यहाँ गरुशब्द सदा शिष्यापेक्ष होकर भी समास को प्राप्त हो जाता है उसी तरह यहाँ भी सामान्यवाची 'तत्' शब्द विशेष इन्द्रियों की अपेक्षा रखने के कारण समास को प्राप्त हो जाता है। 4. इन्द्रियक्रम के अनुसार ही स्पर्श आदि का क्रम रखा गया है। ये सब सामान्य रूप से पुद्गल-द्रव्य के गुण हैं। वैशेषिक मतवादी
5. स्पर्शादि परस्पर तथा द्रव्य से कथञ्चिद् भिन्न और कथञ्चिद् अभिन्न हैं । यदि स्पर्शादि में सर्वथा एकत्व हो तो स्पर्श के छूने पर रस आदि का ज्ञान हो जाना चाहिए। यदि द्रव्य से सर्वथा एकत्व हो तो या तो द्रव्य की सत्ता रहेगी या फिर स्पर्शादि की। यदि द्रव्य की सत्ता रहती है तो लक्षण के अभाव में उसका भी अभाव हो जायगा और यदि गुणों की, तो निराश्रय होने से उनका अभाव ही हो जायगा । यदि सर्वथा भेद माना जाता है तो घट के दिखने पर घट की तरह स्पर्श के छूने पर 'घड़े को छुआ' यह व्यवहार नहीं होना चाहिए। इन्द्रियभेद से स्पर्शादि में सर्वथा भेद मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्वापरत्व आदि रूपी द्रव्य में समवाय-सम्बन्ध से रहने के कारण चाक्षुष होने पर भी परस्पर भिन्न हैं। लक्षण-भेद से भी नानात्व नहीं होता; क्योंकि द्रव्य गुण कर्म में सत्तासम्बन्धित्व रूप एक लक्षण के पाए जाने पर भी भेद देखा जाता है। स्पर्शादि भिन्न उपलब्ध नहीं होते अतः सर्वथा एकत्व मानना उचित नहीं है ; क्योंकि सांख्य के मत में सत्त्व, रज और तम पृथक् उपलब्ध नहीं होते फिर भी भेद माना जाता है। इनमें व्यक्त और अव्यक्त आदि के रूप से अनेकधा भेद पाया जाता है। अतः द्रव्य-दृष्टि से कथञ्चित् एकत्व और पर्यायष्टि से कथञ्चित् भेद मानना ही उचित है । |