सर्वार्थसिद्धि :
विग्रहका अर्थ देह है। विग्रह अर्थात् शरीरके लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है। अथवा विरुद्ध ग्रहको विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्याघात है। तात्पर्य यह है कि जिस अवस्थामें कर्मके ग्रहण होनेपर भी नोकर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है और इस विग्रहके साथ होनेवाली गतिका नाम विग्रहगति है। सब शरीरोंकी उत्पत्तिके मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म कहते हैं। तथा वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोंके हलनचलनको योग कहते हैं। कर्मके निमित्तसे जो योग होता है वह कर्मयोग है वह विग्रहगतिमें होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे नूतन कर्मका गहण और एक देशसे दूसरे देशमें गमन होता है। गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंका एक देशसे दूसरे देशमें गमन क्या आकाशप्रदेशों की पंक्तिक्रमसे होता है या इसके बिना होता है, अब इसका खुलासा करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं – |
राजवार्तिक :
औदारिकादि नाम-कर्म के उदय से उन शरीरों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण विग्रह कहलाता है। विरुद्ध ग्रह अर्थात् कर्म-पुद्गलों का ग्रहण होने पर भी जहां नोकर्म-पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता वह विग्रह । विग्रह के लिए गति विग्रहगति कही जाती है । इस विग्रहगति में सभी औदारिकादि शरीरों को उत्पन्न करनेवाले कार्मण शरीर के निमित्त से ही आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है। इसलिए समनस्क और अमनस्क सभी प्राणियों की गति में कोई व्यवधान नहीं पड़ता। |