+ वैक्रियक शरीर के अन्य स्वामी -
लब्धिप्रत्ययं च॥47॥
अन्वयार्थ : तथा लब्धि से भी पैदा होता है ॥४७॥
Meaning : Attainment is also the cause (of its origin).

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

सूत्रमें 'च' शब्‍द आया है। उससे वैक्रियिक शरीरका सम्‍बन्‍ध करना चाहिए। तपविशेषसे प्राप्‍त होनेवाली ऋद्धिको लब्धि कहते हैं। इस प्रकारकी लब्धिसे जो शरीर उत्‍पन्‍न होता है वह लब्धिप्रत्‍यय कहलाता है।वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्‍यय भी होता है ऐसा यहाँ सम्‍बन्‍ध करना चाहिए।

क्‍या यही शरीर लब्धिकी अपेक्षासे होता है या दूसरा शरीर भी होता हे। अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
राजवार्तिक :

1-2. प्रत्यय शब्द के ज्ञान, सत्यता, कारण आदि अनेक अर्थ हैं किन्तु यहाँ कारण अर्थ विवक्षित है। विशेष तप से जो ऋद्धि प्राप्त होती है वह लब्धि है। लब्धिकारणक भी वैक्रियिक शरीर होता है।

3. उपपाद तो निश्चित है, पर लब्धि अनिश्चित है, किसी के ही विशेष तप धारण करने पर होती है।

4. विक्रिया का अर्थ विनाश नहीं है, जिससे प्रतिसमय न्यूनाधिक रूप से सभी शरीरों का विनाश होने से सबको वैक्रियिक कहा जाय किन्तु नाना आकृतियों को उत्पन्न करना है । विक्रिया दो प्रकार की है - १ एकत्व विक्रिया, २ पृथक्त्व विक्रिया।
  1. अपने शरीर को ही सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूप से बना लेना एकत्व विक्रिया है और
  2. शरीर से भिन्न मकान, मण्डप आदि बना देना पथक्त्व विक्रिया है।
  • भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सोलह स्वर्ग के देवों के दोनों प्रकार की विक्रिया होती है ।
  • ऊपर ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के देवों के प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है।
  • छठवें नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर आदि रूप से जो विक्रिया होती है वह एकत्वविक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया ।
  • सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू आदि रूप से एकत्व विक्रिया ही होती है, आयुधरूप से एकत्व विक्रिया और पृथक्त्व विक्रिया नहीं होती।
  • तिर्यञ्चों में मयूर आदि के एकत्व विक्रिया होती है पृथक्त्व विक्रिया नहीं ।
  • मनुष्यों के भी तप और विद्या आदि के प्रभाव से एकत्व विक्रिया होता है ।