+ स्वर्गों के नाम -
सौधर्मेशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लान्तव-कापिष्ट-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेष्वानतप्राणत-योरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त जयन्तापराजितेषु सर्वार्थ-सिद्धौ च ॥19॥
अन्वयार्थ : सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत आठ स्वर्गों के युगलों में देवों के निवास-स्थान विमान हैं तथा नौ ग्रैवेयक, (र्नवसु) नौ अनुदिश, विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित और सर्वाथसिद्धि अनुत्तर-विमानों मे अहमिन्द्र कल्पातीत-देव रहते हैं ।
Meaning : In Saudharma, Aisâna, Sânatkumâra, Mâhendra, Brahma, Brahmottara, Lântava, Kâpistha, Sukra, Mahâsukra, Satâra, Sahasrâra, in Ânata, Prânata, Ârana, Acyuta, in Navagraiveyakas, in Vijaya, Vaijayanta, Jayanta, Aparâjita and in Sarvârthasiddhi also.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

शंका – इन सौधर्मादिक शब्‍दों को कल्‍प संज्ञा किस निमित्‍त से मिली है ?

समाधान –
व्‍याकरण में चार अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है उससे सौधर्म आदि शब्‍दों की कल्‍प संज्ञा है या स्‍वभाव से ही वे कल्‍प कहलाते हैं ।

शंका – सौधर्म आदि शब्‍द इन्‍द्र के वाची कैसे हैं ?

समाधान –
स्‍वभाव से या साहचर्य से।

शंका – कैसे ?

समाधान –
सुधर्मा नाम की सभा है। वह जहाँ है, उस कल्‍प का नाम सौधर्म है। य‍हाँ 'तदस्मिन्‍नस्ति' इससे 'अण्‌' प्रत्‍यय हुआ है। और इस कल्‍प के सम्‍बन्‍ध से वहाँ का इन्‍द्र भी सौधर्म कहलाता है। इन्‍द्र का ईशान यह नाम स्‍वभाव से है। वह इन्‍द्र जिस कल्‍प में रहता है उसका नाम ऐशान कल्‍प है। यहाँ 'तस्‍य निवासः' इस सूत्र से अण्‌ प्रत्‍यय हुआ है। तथा इस कल्‍प के सम्‍बन्ध से इन्‍द्र भी ऐशान कहलाता है। इन्‍द्र का सनत्‍कुमार नाम स्‍वभाव से है। यहॉं 'तस्‍य निवासः' इस सूत्र से अण् प्रत्‍यय हुआ है इससे कल्‍प का नाम सानत्‍कुमार पडा और इसके सम्‍बन्‍ध से इन्‍द्र भी सानत्‍कुमार कहलाता है। इन्‍द्र का महेन्‍द्र नाम स्‍वभाव से है। वह इन्‍द्र जिस कल्‍प में रहता है, उसका नाम माहेन्‍द्र कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी जानना । व्‍यवस्‍था आगम के अनुसार होती है। इसलिए 'उपर्युपरि' इस पद के साथ दो दो कल्‍पों का सम्‍बन्‍ध कर लेना चाहिए । सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्‍प है। इनके ऊपर सानत्‍कुमार और माहेन्‍द्र कल्‍प है। इनके ऊपर ब्रह्म और ब्रह्मोत्‍तर कल्‍प हैं। इनके ऊपर लान्‍तव और कापिष्‍ठ कल्‍प हैं। इनके ऊपर शुक्र और महाशुक्र कल्‍प हैं। इनके ऊपर शतार और सहस्रार कल्‍प हैं। नीचे और ऊपर आनत और प्राणत कल्‍प हैं। इनके ऊपर आरण और अच्‍युत कल्‍प है। नीचे और ऊपर प्रत्‍येक कल्‍प में एक एक इन्‍द्र है। तथा मध्य में दो दो कल्‍पों में एक एक इन्‍द्र है। तात्‍पर्य यह है कि सौधर्म, ऐशान सानत्कुमार और माहेन्‍द्र इन चार कल्‍पों के चार इन्‍द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्‍त्तर इन दो कल्‍पों का एक ब्रह्म नामक इन्‍द्र है। लान्‍तव और कापिष्‍ठ इन दो कल्‍पों में एक लान्‍तव नाम का इन्‍द्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नाम का इन्‍द्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्‍पों में एक शतार नामक इन्‍द्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्‍युत इन चार कल्‍पों के चार इन्‍द्र हैं। इस प्रकार कल्‍पवासियों के बारह इन्‍द्र होते हैं। जम्‍बूद्वीप में एक महामन्‍दर नाम का पर्वत जो मूल में एक हजार योजन गहरा है। और निन्‍यानबे हजार योजन ऊँचा है। उसके नीचे अधोलोक है। मेरू पर्वत की जितनी ऊँचाई है उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्‍लोक है। उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक है, जिसकी मेरू चूलिका चालीस योजन विस्तृत है । उसके ऊपर एक बाल के अन्‍तर से ऋजुविमान है जो सौधर्म कल्‍प का इन्‍द्रक विमान है। शेष सब लोकानुयोग से जानना चाहिए।

शंका – 'नवसु ग्रैवेयकेषु' यहॉं नव शब्‍द का कथन अलग से क्‍यों किया है ?

समाधान –
अनुदिश नाम के नौ विमान और हैं। इस बात के बतलाने के लिए 'नव' शब्‍द का अलग से कथन किया है। इससे भी अनुदिशों का ग्रहण कर लेना चाहिए।

अब इन अधिकार प्राप्‍त वैमानिकों के परस्‍पर विशेष ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
राजवार्तिक :

1-2. सौधर्म आदि संज्ञाएं स्वभाव से अथवा साहचर्य से पड़ी हैं। इनके साहचर्य से इन्द्र भी सौधर्म आदि कहलाते हैं ।
  • सुधर्मा नाम की सभा जिसमें पाई जाती है वह सौधर्म कल्प है। सौधर्म कल्प के साहचर्य से इन्द्र भी सौधर्म कहा जाता है।
  • ईशान नाम का इन्द्र है। ईशान का निवासभूत कल्प ऐशान कहा जाता है, फिर इन्द्र भी ऐशान ही कहा जाता है ।
  • सनत्कुमार नाम का इन्द्र स्वभाव से है। उसका निवासभूत कल्प सानत्कुमार कहलाता है। इन्द्र भी इसीलिए सानत्कुमार कहा जाता है।
  • महेन्द्र नाम का इन्द्र है । इसका निवासभूत कल्प माहेन्द्र और इन्द्र भी माहेन्द्र कहा जाता है।
  • ब्रह्मा इन्द्र है। उसके निवास को ब्रह्मलोक कल्प कहते हैं तथा इन्द्र भी ब्रह्म कहलाता है।
  • इसी तरह ब्रह्मोत्तर ।
  • लान्तव इन्द्रक निवासभूत कल्प को लान्तव कहते हैं, इन्द्र भी लान्तव कहलाता है।
  • शुक्र इन्द्र का निवास कल्प शौक या शुक्र, इन्द्र भी शुक्र ।
  • शतार इन्द्र का निवासभूत कल्प शतार और इन्द्र भी शतार । इसी तरह सहस्रार में भी।
  • आनत इन्द्र का निवासभूत कल्प आनत और इन्द्र भी आनत ।
  • प्राणत इन्द्र का निवास प्राणत कल्प और इन्द्र का नाम भी प्राणत ।
  • आरण इन्द्र का निवास कल्प आरण और इन्द्र का नाम भी आरण ।
  • अच्युत इन्द्र का निवास अच्युत कल्प और इन्द्र भी अच्युत ।
लोक पुरुष के ग्रीवा की तरह ग्रैवेयक हैं । विजयादि विमानों की भी इसी तरह सार्थक संज्ञाएं हैं। इनके इन्द्रों के भी यही नाम हैं ।

3. सर्वार्थसिद्धि विमान में एक ही उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागर की है, प्रभाव भी सर्वार्थसिद्धि के देवों का सर्वोत्कृष्ट है इत्यादि विशेषताओं के कारण सर्वार्थसिद्धि का पृथग् ग्रहण किया है।

4-5. ग्रैवेयक आदि को कल्पातीत बतलाने के लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है। नव शब्द को पृथक् रखने से नव अनुदिश की सूचना हो जाती है । अनुदिश अर्थात् प्रत्येक दिशा में वर्तमान विमान ।

6-8. 'उपरि उपरि' के साथ दो-दो स्वर्गों का सम्बन्ध है । अर्थात् सौधर्म-ऐशान के ऊपर सानत्कुमार-माहेन्द्र आदि । सोलह स्वर्गों में एक-एक इन्द्र है पर मध्य के 8 स्वर्गों में चार इन्द्र हैं। इसलिए 'आनतप्राणतयोः आरणाच्युतयोः' इन चार स्वर्गों का पृथक् निर्देश करना सार्थक होता है । अन्यथा लाघव के लिए एक ही द्वन्द्व-समास करना उचित होता ।

इस भूमितल से 990040 योजन ऊपर सौधर्म ऐशान कल्प हैं। उनके 31 विमान प्रस्तार हैं । ऋतु चन्द्र विमल आदि उनके नाम हैं। मेरु पर्वत के शिखर और ऋतुविमान में मात्र एक बाल का अन्तर है। ऋतुविमान से चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक में 62-62 विमान हैं। विदिशाओं में पुष्प प्रकीर्णक हैं। प्रभा नामक इन्द्रक की श्रेणी में अठारवाँ विमान कल्पविमान है। उसके स्वस्तिक, वर्धमान और विश्रुत नाम के तीन प्राकार हैं । बाह्य प्राकार में अनीक और पारिषद, मध्य प्राकार में त्रायस्त्रिश देव और अन्तर प्राकार में सौधर्म इन्द्र रहता है। उस विमान की चारों दिशाओं में चार नगर हैं। उसके 32 लाख विमान हैं । 33 त्रायस्त्रिश, 84 हजार आत्मरक्ष, तीन परिषदें, सात अनीक, 84 हजार सामानिक, चार लोकपाल, पद्मा आदि अग्रमहिषी, 40 हजार वल्लभिकाएं हैं। इत्यादि विभूति हैं। प्रभा विमान से उत्तर में १८वें कल्प विमान में ऐशान इन्द्र रहता है । इसका परिवार सौधर्म की तरह है। इसी तरह सोलहों स्वर्ग का वर्णन है। लोकानुयोग में चौदह इन्द्र कहे गए हैं। पर यहाँ बारह विवक्षित हैं क्योंकि ब्रह्मोतर, कापिष्ठ, महाशुक्र और सहस्रार ये चार अपने दक्षिणेन्द्र के अनुवर्ती हैं। आरणाच्युत विमान से सैकड़ों योजन ऊपर अधोग्रैवेयक के तीन विमान पटल हैं। फिर मध्यम ग्रैवेयक और फिर उत्तम ग्रैवेयक के विमान पटल हैं । इनके ऊपर नव अनुदिश विमानों का एक पटल है। इनसे सैकड़ों योजन ऊपर एक सर्वार्थसिद्धि पटल है। इसमें चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित तथा मध्य में सर्वार्थसिद्धि विमान है।
  • सौधर्म ईशान के विमान पंचवर्ण के,
  • सानत्कुमार माहेन्द्र के कृष्णवर्ण के बिना चार वर्ण के,
  • ब्रह्मादि चार स्वर्गों के कृष्ण और नील के बिना तीन वर्ण के,
  • शुक्रादि आठ स्वर्गों के विमान पीले और शुक्ल वर्ण के हैं ।
  • ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर विमान शुक्लवर्ण के ही हैं।
  • सर्वार्थसिद्धि विमान परम शुक्लवर्ण हैं।