+ दो भवधारी देव -
विजयादिषु द्वि-चरमा: ॥26॥
अन्वयार्थ : नव अनुदिश के नौ और ४ अनुत्तरों; विजय ,वैजयंत,जयंत, अपराजित के देव उत्कृष्टता से दो भवधारी होते हैं ।
Meaning : In Vijaya and the others the devas are of two final births.

  सर्वार्थसिद्धि    राजवार्तिक 

सर्वार्थसिद्धि :

यहॉं आदि शब्‍द प्रकारवाची है । इससे विजय, वैजयन्‍त, जयन्‍त, अपराजित और नौ अनुदिशों का ग्रहण सिद्ध हो जाता है।

शंका – यहाँ कौन-सा प्रकार लिया है?

समाधान –
अहमिन्‍द्र होते हुए सम्‍यग्‍दृष्टियों का उत्‍पन्‍न होना, यह प्रकार यहाँ लिया गया है।

शंका – इससे सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्‍त होता है।

समाधान –
नहीं क्‍योंकि वे परम उत्कृष्ट हैं। उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। देह का चरमपना मनुष्‍य भव की अपेक्षा लिया है। जिसके दो चरम भव होते हैं वे द्विचरम कहलाते हैं। जो विजयादिक से च्‍युत होकर और सम्‍यक्‍त्‍व को न छोडकर मनुष्‍यों में उत्‍पन्‍न होते हैं और संयम की आराधना कर पुन: विजयादिक में उत्‍पन्‍न होकर और वहाँ से च्‍युत होकर मनुष्‍य भव को प्राप्त करके सिद्ध होते हैं। इस प्रकार यहॉं मनुष्‍य भव की अपेक्षा द्विचरमपना है।



कहते हैं, जीव के औदयिक भावों को बतलाते हुए तिर्यंचगति औदयिकी कही है। पुन: स्थितिका कथन करते समय 'तिर्यग्‍योनिजानां च' यह सूत्र कहा है । पर यह न जान सके कि तिर्यंच कौन है इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –
राजवार्तिक :

1. आदि शब्द प्रकारार्थक है, अर्थात् विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और अनुदिश विमानोंमें द्विचरम होते हैं। इनमें एकप्रकारता इसलिए है कि सभी पूर्व सम्यग्दृष्टि और अहमिन्द्र हैं। सर्वार्थसिद्धि नामसे ही सूचित होता है कि वहाँके देव सर्वोत्कृष्ट हैं और एकचरम हैं।

2-4. द्विचरमत्व मनुष्यदेह की अपेक्षा है, अर्थात् विजयादिक से च्युत होकर सम्यग्दर्शन को कायम रखते हुए मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं फिर संयम की आराधना कर विजयादिक में उत्पन्न होते हैं। फिर च्युत होकर मनुष्यभव धारण कर मुक्त हो जाते हैं। इस तरह मनुष्यभव की अपेक्षा द्विचरमत्व है वैसे तो दो मनुष्यभव तथा एक देवभव मिलाकर त्रिचरम गिने जा सकते हैं। चूंकि मनुष्य पर्याय से ही मोक्षलाभ होता है अतः मनुष्यदेह की अपेक्षा ही चरमत्व गिना जा सकता है । यद्यपि चरम शब्द अन्त्यवाची है अतः एक ही चरम हो सकता है परन्तु चरम के पास का अव्यवहित पूर्व का मनुष्यभव भी उपचार से चरम कहा जा सकता है । देवभव के व्यवधान-अव्यवधान का विचार मोक्ष के प्रकरण में नहीं होता क्योंकि मोक्ष मनुष्य पर्याय से ही होता है।

5 प्रश्न – आगम में अन्तर प्रकरण में अनुदिश, अनुत्तर और विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासियों का जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक दो सागर बताया है। इसका यह अर्थ है कि मनुष्यों में उत्पन्न होकर आठ वर्ष संयम की आराधना कर अन्तर्मुहूर्त में फिर विजयादि में उत्पन्न हो जाते हैं इस तरह जघन्य से वर्षपृथक्त्व अन्तर है। कुछ विजयादिक से च्युत होकर मनुष्यभव से सौधर्म ऐशान कल्प में जाते हैं फिर मनुष्य होकर विजयादि में जाते हैं इनके दो सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट अन्तर होता है। इस अपेक्षा मनुष्य के तीन भव हो जाने से द्विचरमत्व नहीं रहता ?

उत्तर –
आगम में उक्त कथन प्रश्न विशेष की अपेक्षा से है। गौतम ने भगवान् से यह प्रश्न किया कि विजयादिक में देव मनुष्य-पर्याय को प्राप्त कर कितनी गति आगति विजयादिक में करते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडक में कहा कि आगति की दृष्टि से जघन्य से एक भव तथा गति आगति की अपेक्षा उत्कृष्ट से दो भव। सर्वार्थसिद्धि से च्युत होनेवाले मनुष्य-पर्याय में आते हैं तथा उसी पर्याय से मोक्षलाभ करते हैं। विजयादि के देव लौकान्तिक की तरह एकभविक नहीं हैं किन्तु द्विभविक हैं। इसमें बीच में यदि कल्पान्तर में उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है।