
सर्वार्थसिद्धि :
णिजन्त वृत्ति धातु से कर्म या भाव में 'युट्' प्रत्यय के करने पर स्त्रीलिंग में वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या वर्तनमात्रम् होती है । यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी उनकी वृत्ति बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती, इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मान कर वर्तना काल का उपकार कहा है । शंका – णिजर्थ क्या है ? समाधान – द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है । शंका – यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है ? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है । (यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है ।) समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्त मात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है । जैसे कंडे की अग्नि पढ़ाती है । यहाँ कंडे की अग्नि निमित्तमात्र है उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है । शंका – वह काल है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान – समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्याादि रूप से अपनी-अपनी रौढि़क संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समय काल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है । एक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं । यथा जीव के क्रोधादि और पुद्गल के वर्णादि । इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य में परिणाम होता है जो अगुरुलघु गुणों (अविभाग-प्रतिच्छेदों) की वृद्धि और हानि से उत्पन्न होता है । द्रव्य में जो परिस्पन्दरूप परिणमन होता है उसे क्रिया कहते हैं । प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से वह दो प्रकार की है । उनमें-से गाड़ी आदि की प्रायोगिक क्रिया है और मेघादिक की वैस्रसिकी । परत्व और अपरत्व दो प्रकार का है – क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रकृत में कालकृत उपकार का प्रकरण है, इसलिए कालकृत परत्व और अपरत्व लिये गये हैं । ये सब वर्तनादिक उपकार काल के अस्तित्व का ज्ञान कराते हैं । शंका – सूत्र में केवल वर्तना पद का ग्रहण करना पर्याप्त है । परिणाम आदिक उसके भेद हैं, अत: उनका अलग से ग्रहण करना निष्फल है । समाधान – परिणाम आदिक का अलग से ग्रहण करना निष्फल नहीं है, क्योंकि दो प्रकार के काल के सूचन करने के लिए इतना विस्तार से कथन किया है । काल दो प्रकार का है - परमार्थ काल और व्यवहार काल । इनमें-से परमार्थ काल वर्तना लक्षणवाला है और परिणाम आदि लक्षणवाला व्यवहार काल है । तात्पर्य यह है कि जो क्रिया विशेष अन्य से परिच्छिन्न होकर अन्य के परिच्छिेद का हेतु है उसमें काल इस प्रकार का व्यवहार किया गया है । वह काल तीन प्रकार का है - भूत, वर्तमान और भविष्यत् । उनमें-से परमार्थ काल में काल यह संज्ञा मुख्य है और भूतादिक व्यपदेश गौण है । तथा व्यवहार काल में भूतादिकरूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है, क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रिया वाले द्रव्य की अपेक्षा से होता है तथा काल का कार्य है । यहाँ पर शंकाकार कहता है कि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल द्रव्य का उपकार कहा तथा, 'उपयोगो लक्षणम्' इत्यादि सूत्र द्वारा इनका लक्षण भी कहा । इसी प्रकार 'अजीवकाया' इत्यादि सूत्र द्वारा पुद्गलों का सामान्य लक्षण भी कहा, किन्तु पुद्गलों का विशेष लक्षण नहीं कहा, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -- |
राजवार्तिक :
प्रश्न – काल का स्वरूप क्या है ? उत्तर – जितने लोकाकाश में प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं । इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है । एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है । सारे लोकाकाश में भिन्न होने से इनमें मुख्य और प्रदेश कल्पना नहीं है क्योंकि ये निरवयवी हैं । क्योंकि मुख्यप्रदेश कल्पना घर्म, अधर्म, आकाश, जीव और द्वय-अणुक पुद्गल स्कन्धों में है तथा परमाणु में प्रचयशक्ति के कारण उपचार से प्रदेश-कलपना है, परन्तु कालाणु में धर्मास्तिकाय आदि के समान न तो मुख्य-प्रदेश कल्पना है और न परमाणु के समान उपचार प्रदेश-प्रचय कल्पना है, अत: कालाणु में कायत्व का अभाव है अर्थात् कालाणु अस्तिकाय नहीं है क्योंकि दोनों प्रकार के प्रदेश-प्रचयों का इसमें अभाव है । विनाश का कारण न होने से कालाणु नित्य है । कालाणु में पर-प्रत्यय (कारण) से उत्पाद-विनाश होता रहता है, इसलिए कालाणु कथंचित अनित्य भी है । सुई में धागा जाने के आकाश मार्ग के छिद्र के समान परिछिन्न मूर्ति होने पर भी रूप-रस-आदि से रहित होने के कारण अमूर्त्त है । अर्थात् जैसे सुई का धागा जाने से मार्ग परिछिन्न होता है, अमूर्त्त होते हुए भी सुई के छिद्र का आकाश सुई के नोक बराबर मूर्त्त हो जाता है, उतने स्थान का कालाणु भी परिछिन्न हो जाने से मूर्तसा दिखता है परन्तु रूप आदि नहीं होने से, वास्तव में अमूर्त्त है । प्रदेशान्तर -- क्षेत्र से क्षेत्रान्तर के संक्रमण का अभाव होने से कालाणु निष्क्रिय है । व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्वा-परत्व के द्वारा लक्षित होता है । कालकृत वर्त्तना का आधार होने से यह भी काल कहलाता है । यह स्वयं किसी के द्वारा परिछिन्न होकर अन्य पदार्थों के परिच्छेद में कारण होता है ॥२४॥ परस्पर अपेक्षा से काल तीन प्रकार का सिद्ध है । भूत, वर्त्तमान और भविष्यत् । ये तीनों काल परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं । जैसे वृक्ष-पंक्ति के अनुसार चलने वाले देवदत्त के एक-एक वृक्ष प्राप्त होने से कुछ वृक्ष प्राप्त हो चुके, कुछ प्राप्त हो रहे हैं और कुछ आगे प्राप्त होंगे, ऐसा व्यपदेश हाता है, उसी प्रकार उन कालाणुओं की क्रमिक पर्यायों का अनुसरण करने वाले दव्यों में क्रमश: वर्तमान का अनुभवन होने से भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल का सदव्यवहार होता है । उनमें परमार्थ (मुख्य) काल में भूत, वर्तमानादि का व्यवहार गौण है तथा व्यवहार काल में मुख्य है । अत: यह भूतादि व्यवहार काल एक-दूसरे की अपेक्षा रखता है । जो क्रियापरिणत द्रव्य कालपरमाणु को प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल के द्वारा वर्तमान समय सम्बन्धी वर्त्तना के कारण वर्तमान-काल कहलाता है । कालाणु भी उस वर्तमान द्रव्य की स्व-सम्बन्धी वर्तना के कारण वर्त्तमान कहा जाता है, वही द्रव्य जब कालवश वर्तना के सम्बन्ध का अनुभव कर चुकता है तब भूत कहा जाता है और कालाणु भी भूतकाल सम्बन्धी द्रव्य की वर्त्तना में कारण होने से भूत कहलाता है । वहीं द्रव्य आगे होने वाली वर्त्तना की अपेक्षा भविष्यत् कहा जाता है और कालाणु भी भविष्यत्काल सम्बन्धी द्रव्य की वर्तना के कारण भविष्यत् कहलाता है । इस प्रकार सूर्य को प्रतिक्षण गति की अपेक्षा आवलिका, उच्छवास, प्राण, स्तोक, लव, नालिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि सूर्य-गति-निमित्तक परिवर्तन काल-वर्तना के कारण व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र में होता है, ऐसा कहा जाता है ; क्योंकि मनुष्य लोक में ही ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं । मनुष्य-क्षेत्र से बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं, गमन नहीं करते अर्थात वे गतिव्यापार से रहित हैं । मनुष्य-क्षेत्र में उत्पन्न ज्योतिषी देवों की गति के कारण समुत्थ समय आवलि आदि के द्वारा परिछिन्न क्रियाकलाप रूप वर्तना नामक काल से ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोकरूप तीनों लोकों के प्राणियों की संख्यात, असंख्यात, अनन्तानन्त काल गणना के प्रभेद से कर्म-स्थिति, भव-स्थिति और काय-स्थिति आदि का परिच्छेद (ज्ञान) होता है । इससे संख्यात, असंख्यात, अनन्त आदि की गिनती की जाती है और इस व्यवहार काल से ही सर्वत्र, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अवस्था की जाती है ॥२५॥ 1-3. 'वर्तते अनया अस्यां वा' ऐसा करण और अधिकरण में विग्रह करके यदि वर्तना शब्द की सिद्धि की जाती है तो युट प्रत्यय में टित् होने से ङीप प्रत्यय होने पर 'वर्तनी' प्रयोग बनेगा अतः 'वर्त्यते वर्तनमानमात्रं वा वर्तना' यह णिजन्त से युच् प्रत्यय करके बनाया जाता है। अथवा 'वर्तनशीला वर्तना' ऐसा तच्छील अर्थ में युच् करके वर्तना शब्द बन जाता है। 4. हर एक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते हैं । तात्पर्य यह कि पदार्थ अपनी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ता का प्रतिक्षण अनुभव धर्मादि द्रव्य अपनी अनादि या आदिमान पर्यायों में प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप से परिणत होते रहते हैं, यही स्वसत्तानुभूति वर्तना है। सादृश्योपचार से प्रतिक्षण 'वर्तना वर्तना' ऐसा अनुगत व्यवहार होने से यद्यपि यह एक कही जाती है पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य की अपनी अपनी वर्तना जुदी-जुदी है। 5. वर्तना प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है। यह अनुमान से इस प्रकार सिद्ध है - जैसे तन्दुल को पकने के लिए बटलोई में डाला और वह आधा घण्टे में पका तो यह नहीं समझना चाहिए कि 29 या साढ़े 29 मिनट तो वह ज्यों का त्यों रखा रहा और अन्तिम क्षण में पककर भात बन गया हो। उसमें प्रथम समय से ही सूक्ष्मरूप से पाक बराबर होता रहा है। यदि प्रथम समय में पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे आदि क्षणों में भी सम्भव नहीं हो सकता था। इस तरह पाक का ही अभाव हो जायगा। 6. काल का लक्षण वर्तना है। समय आदि क्रियाविशेषों की तथा समय से निष्पन्न पाकादि पर्यायों की, जो कि स्वसत्ता का अनुभव करके स्वतः ही वर्तमान हैं, उत्पत्ति का बाह्य कारण काल है। उनमें 'समय, पाक' आदि व्यवहार तो होते हैं पर 'काल' यह व्यवहार बिना कालद्रव्य के नहीं हो सकता । इस तरह काल अनुमेय होता है। 7. आदित्य-सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना नहीं हो सकती; क्योंकि सूर्य की गति में भी 'भूत वर्तमान भविष्यत' आदि कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है। उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए । वही काल है। 8. जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए वो अग्नि का व्यापार ही चाहिए उसी तरह आकाश वर्तनावाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता । उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है। 9. सत्ता यद्यपि सर्व-पदार्थों में रहती है, साधारण है, पर वर्तना सत्ताहेतुक नहीं हो सकती क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है । अतः काल पृथक ही होना चाहिए। 10. द्रव्य का अपनी स्व-द्रव्यत्वजाति को नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक की प्रधानता में उसका पृथक् व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह कि अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हुए पूर्वपर्याय की निवृत्तिपूर्वक जो उत्तर पर्याय का उत्पन्न होना है वही परिणाम है। प्रयोग अर्थात् पुद्गल विकार । प्रयोग के बिना होनेवाली विक्रिया विस्रसा होती है। परिणाम दो प्रकार का है - एक अनादि, दूसरा आदिमान् । लोक की रचना सुमेरु पर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं । आदिमान दो प्रकार के हैं - एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक । चेतन द्रव्य के औपशमिकादि भाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं। पुरुष प्रयत्न की जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैस्रसिक परिणाम हैं । ज्ञान, शील, भावना आदि गुरूपदेश के निमित्त से होते हैं, अतः ये प्रयोगज हैं । अचेतन मिट्टी आदि का कुम्हार आदि के प्रयोग से होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष, मेघ आदि रूप से परिणमन वैस्रसिक है। 11. प्रश्न – बीज अंकुर में है या नहीं ? यदि है; तो वह अंकुर नहीं कहा जा सकता बीज की तरह । यदि नहीं है, तो कहना होगा कि बीज अंकुर रूप से परिणत नहीं हुआ क्योंकि उसमें बीजस्वभावता नहीं है। इस प्रकार सत् और असत्, दोनों पक्ष में दूषण आते हैं, अतः परिणाम हो ही नहीं सकता? उत्तर – पक्षान्तर अर्थात् कथञ्चित् सदसद्वाद में सर्वथा सत् पक्ष के और सर्वथा असत् पक्ष के दोष नहीं आते और न उभय पक्ष के दोनों दोष ही आ सकते हैं, क्योंकि कथञ्चित् सदसद्वाद 'नरसिंह' की तरह जात्यन्तर रूप है। शालिबीजादि द्रव्यार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज है, यदि उसका निरन्वय विनाश हो गया होता तो वह 'शालिका अंकुर' क्यों कहलाता है ? शालिबीज और शालिअंकुर रूप पर्यायार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज नहीं है क्योंकि यदि बीज का परिणमन नहीं हुआ होता तो अंकुर कहाँ से आता ? अतः अनेकान्तवाद में कोई दूषण नहीं है। 12. हम यह पूछते हैं कि - जिस परिणाम का तुम निषेध करते हो वह विद्यमान है, या नहीं ? दोनों ही पक्ष में प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। यदि परिणाम विद्यमान है। तब निषेध कैसा ? यदि विद्यमान का निषेध करते हो; तो 'परिणाम का प्रतिषेध' भी विद्यमान है, अतः उसका भी प्रतिषेध हो जायगा। ऐसी दशा में परिणाम का अस्तित्व ही सिद्ध होगा। यदि परिणाम का प्रतिषेध विद्यमान होने पर भी अप्रतिषिद्ध है; तो परिणाम भी विद्यमान रहते हुए अप्रतिषिद्ध रहना चाहिए। यदि परिणाम विद्यमान नहीं है, तो भी खरविषाण की तरह उसका निषेध नहीं किया जा सकता। अथवा जो व्यक्ति परिणाम का प्रतिषेध कर रहा है उसका 'वक्ता' के रूप में, वचनों का 'वाचक शब्द' के रूप में तथा अभिधेय का 'वाच्य अर्थ' के रूप में परिणमन भी जब नहीं होगा तब प्रतिषेध कैसे होगा? तात्पर्य यह कि वक्ता, वाच्य और वचनों के अभाव में परिणाम का प्रतिषेध सिद्ध नहीं हो पायगा। 13. प्रश्न – 'बीज से अंकुर भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो वह बीज का परिणाम नहीं कहा जा सकेगा। यदि अभिन्न है; तो उसे अंकुर नहीं कह सकते क्योंकि वह बीज के स्वरूप की तरह बीज से अभिन्न है। कहा भी है - 'यदि बीज स्वयं परिणत हुआ है तो अंकुर बीज से भिन्न नहीं हो सकता । पर ऐसा है नहीं, अर्थात् भिन्न है । यदि भिन्न है अर्थात् बीज अंकुररूप नहीं है तो उसे अंकुर नहीं कह सकते' इत्यादि दूषण आते हैं अतः परिणाम नहीं बन सकता। उत्तर – इसका उत्तर पहिले दे दिया है कि हम एकान्तपक्ष को नहीं मानकर अनेकान्तपक्ष मानते हैं। अंकुर की उत्पत्ति के पहिले बीज में अंकुर पर्याय नहीं थी पीछे उत्पन्न हुई अतः पर्याय की दृष्टि से अंकुर बीज से भिन्न है । चूँकि शालिबीज की जातिवाला ही अंकुर उत्पन्न हुआ है अन्य जाति का नहीं अतः शालिबीज जातिवाले द्रव्य की दृष्टि से बीज से अंकुर अभिन्न है। 11. प्रश्न – बीज जब अंकुररूप से परिणत हो जाता है तब उसमें बीज यदि व्यवस्थित है तो बीज के व्यवस्थित रहने से अंकुर का होना विरुद्ध ही है। यदि अव्यवस्थित है तो कहना होगा कि बीज अंकुररूप से परिणत नहीं हुआ' इत्यादि दोष आने से परिणाम नहीं सकता। उत्तर – इस सम्बन्ध में अनेकान्त ही स्वीकार किया गया है। जैसे मनुष्यायु और नाम-कर्म के उदय से अंग-उपांग पर्यायों को प्राप्त करता हुआ आत्मा अंगुलि उपांग की दृष्टि से अंगुलि-आत्मा कहा जाता है। वह अंगुलि-आत्मा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की अपेक्षा संकुचित और प्रसारित अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उस समय वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से 'सत्' है और पुद्गलरूप से परिणत अंगुलि उपांग की दृष्टि से भी 'सत्' है, अभिन्न है और अवस्थित है। संकोचन प्रसारणरूप पर्यायार्थिक दृष्टि से ही वह असत भिन्न और अनवस्थित है। उसी तरह एकेन्द्रिय वनस्पति नाम कर्म के उदयवाला आत्मा ही बीज कहा जाता है । वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से 'सत्' है और पौद्गलिक शालिजातीय एकेन्द्रिय के रूप, रस, स्पर्श, शब्दादि पर्याय की दृष्टि से भी 'सत्' है, इसी तरह अभिन्न भी है और अवस्थित भी। हाँ, पौगलिक शालिबीजरूप पर्याय की दृष्टि से ही वह असत् भिन्न और अनवस्थित है। इस तरह अनेकान्तवाद में कोई दूषण नहीं रहता। 15. प्रश्न – परिणाम मानने में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि बीज अंकुररूप से परिणत होता है तो दूध के परिणाम दही की तरह अंकुर को बीजमात्र ही होना चाहिए, बड़ा नहीं। कहा भी है -'यदि बीज अंकुरपने को प्राप्त होता है तो छोटे बीज से बड़ा अंकुर कैसे हो सकेगा ?' यदि पार्थिव और जलीय रस से अंकुर की वृद्धि कही जाती है तो कहना होगा कि वह बीज का परिणाम नहीं हुआ। कहा भी है -'यदि यह इष्ट है कि अंकुर पार्थिव और जलीय रस से बढ़ता है तो फिर उसे बीज का परिणाम नहीं कहना होगा।' पार्थिव जलीय तथा अन्य रस द्रव्यों के संचय से वृद्धि की कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि लाख का संयोग होने पर भी जैसे लकड़ी में वृद्धि नहीं होती उसी तरह संचय से वृद्धि नहीं मानी जा सकती। कहा भी है - 'जैसे लाख से लपेटने पर भी काठ मोटा तो हो जाता है पर बढ़ता नहीं है, लाख ही बढ़ती है, उसी तरह यदि बीज उसी तरह रहता है और रस बढ़ते हैं तो फिर बीज क्या करता है ?' उत्तर – ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है; योंकि इसमें अन्य ही हेतु है । क्योंकि 'बीज मात्र अंकुर होगा' यह कहकर परिणाम तो आगे स्वीकार कर ही लिया है । जैसे मनुष्यायु नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ बालक बाह्य सूर्यप्रकाश, माँ का दूध आदि को अपनी भीतर पाचनशक्ति से पचाता हुआ आहार आदि के द्वारा क्रमशः बढ़ता है उसी तरह वनस्पति विशेष आयु और नाम कर्म के उदय से बीजाश्रित जीव अंकुररूप से उत्पन्न होकर पार्थिव और जलीय रसभाग को गरम लोहे के द्वारा सोखे गये पानी की तरह खींचता हुआ बाह्य सूर्यप्रकाश और भीतरी पाचनशक्ति के अनुसार उन्हें जीर्ण करता हुआ अपने खाद के अनुसार बढ़ता है । अतः वृद्धि बीजाश्रित नहीं है किन्तु अन्य कारणों के आधीन है। यह दोष तो एकान्तवादियों को ही हो सकता है । जो वस्तु को सर्वथा नित्य मानते हैं, उनके यहाँ तो परिणमन ही नहीं होता, वृद्धि कहाँ से होगी ? क्षणिक पक्ष में भी प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रक्रिया में जितना कारण होगा उतना कार्य होगा अतः वृद्धि नहीं हो सकती । क्षणिक पक्ष में अंकुर और अंकुर के कारण भौम रस उदक-रस आदि का युगपत् विनाश होगा या क्रमशः ? यदि युगपत् ; तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी? वृद्धि के कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे हैं तो वे अन्य विनश्यमान पदार्थ की क्या वृद्धि करेंगे? यदि क्रमशः; तब भी नष्ट अंकुर का भौमरस उदकरस आदि क्या करेंगे? अथवा, विनष्ट रसादि अंकुर का क्या कर सकेंगे? अनेकान्तवादी के मत में तो अंकुर या भौमरसादि सभी द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं और पर्याय दृष्ट से अनित्य । अतः वृद्धि हो सकती है। 16. शंका – क्षणिक पक्ष में प्रबन्धभेद मानकर वृद्धि बन सकती है। प्रबन्ध तीन प्रकार के हैं - सभागरूप, क्रमापेक्ष और अनियत । प्रदीप से प्रदीप की सन्तति चलना सभागप्रबन्ध है। यह प्रवाह से प्रवाह की तरह सादृश्य होने से सभाग कहलाता है। जो सन्तान प्रबन्ध क्रम से चले वह क्रमापेक्ष है जैसे कि बाल, कुमार, जवान आदि दशाओं का या बीज अंकुर आदि अवस्थाओं का । मुर्गे में अनेक रंग के प्रबन्ध की तरह मेघ और इन्द्रधनुष आदि में अनियत प्रबन्ध है। इससे वृद्धि हो सकती है ? समाधान – यहाँ यह विचारणीय है कि प्रबन्ध दो विद्यमान पदार्थों का माना जायगा, या अविद्यमान पदार्थों का, या विद्यमान और अविद्यमान का ? दो अविद्यमानों का तो बन्ध्यासुत और आकाशपुष्प की तरह प्रबन्ध हो नहीं सकता । इसी तरह खर और खरविषाण की तरह एक विद्यमान और एक अविद्यमान का भी प्रबन्ध नहीं हो सकेगा। अन्त में विद्यमानों का ही प्रबन्ध बनता है। परन्तु क्षणिकपक्ष में पूर्व और उत्तर स्कन्ध की एक क्षण में सत्ता तो हो ही नहीं सकती अतः प्रबन्ध कैसा ? यदि सत्ता मानते हैं तो क्षणिकवाद का लोप हो जायगा । 'तराजू के पलड़ों में एक का ऊपर उठना और दूसरे का नीचे झुकना जिस प्रकार एक साथ होता है उसी तरह एक साथ उत्पाद और विनाश मानकर अर्थप्रबन्ध चलेगा' यह पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि युगपत् उत्पाद-विनाश माना जाता है तो दायें-बायें सींग की तरह परस्पर कार्य-कारणभाव नहीं हो सकेगा। 17-18. "अवस्थित द्रव्य के एक धर्म की निवृत्ति होने पर अन्य धर्म की उत्पत्ति होना परिणाम है।" ध्रौव्यादि लक्षणवाले द्रव्य के क्षीरधर्म की निवृत्तिपूर्वक दधिधर्म की उत्पत्ति परिणाम कही जाती है । परिणाम का यह लक्षण भी ठीक नहीं है, इसमें अनेक दोष आते हैं । इस वादी के यहाँ द्रव्य अवस्थित तो है नहीं, जिसका परिणाम होगा। यदि गुणसमुदाय से भिन्न कोई द्रव्य स्थिर रहता है तो गुण-समुदायमात्र को द्रव्य नहीं मानना चाहिए। बताइए जो उत्पन्न होता है जो नष्ट होता है तथा जो स्थिर रहता है ये तीनों गुणसमुदायरूप हैं, या उससे भिन्न ? यदि गुणसमुदायमात्र ही हैं। तो जब वही गुणसमुदाय पहिले रहा तथा वही पश्चात् , तो इनमें कौन किसका परिणाम होगा ? निवृत्त होनेवाला उत्पन्न होनेवाला, और स्थिर रहनेवाला तो भिन्न ही होना चाहिए। यदि भिन्न है; तो गुणसमुदायमात्र को ही द्रव्य नहीं मानना चाहिए। यदि एक धर्म नष्ट होता है तथा अन्य उत्पन्न, तो फिर नित्यैकान्तपक्ष समाप्त हो जाता है। किंच, समुदाय गुणों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है; तो गुणमात्र ही रह जायँगे, समुदाय क्या रहेगा ? और जब समुदाय नहीं रहेगा तो उसके अविनाभावी गुणों का भी अभाव हो जायगा। यदि समुदाय भिन्न माना जाता है तो 'गुण-समुदायमात्र द्रव्य है' - इस प्रतिज्ञा का विरोध होगा तथा परस्पर अविनाभावी गुण और समुदाय दोनों का अभाव हो जायगा । यदि पूर्वभाव के अन्यभावरूप होने को परिणाम कहते हैं तो सुख-दुःख और मोह शब्दादि या घटादिरूप हो जायँगे । ऐसी हालत में शब्दादि या घटादि में सुखादि के समन्वय की बात नहीं रहती। यदि समन्वय स्वीकार किया जाता है तो 'पूर्वभाव का अन्यभाव होना परिणाम है' परिणाम का यह लक्षण नहीं बनता। फिर, 'जो जिस रूप में नहीं है उसमें वह रूप नहीं आ सकता' यह साधारण नियम है जैसे कि अभाव भावरूप से नहीं है तो उसमें भावरूपता नहीं आ सकती। इसी तरह गुणों में यदि स्थूलरूपता नहीं है तो उनमें स्थूलरूपता नहीं आ सकती। यदि उनमें वह रूप है; तो भी परिणाम कैसा ? जिसमें जो रूप विद्यमान है उसमें फिर से वही रूप तो प्राप्त हो नहीं सकता । अभाव अभावात्मक है तो वह फिर से अभावात्मक क्या होगा ? इस तरह एकान्तपक्ष में दोनों प्रकार से परिणाम नहीं बन पाता अतः अनेकान्तवाद स्वीकार करना चाहिए। अनेकान्त पक्ष में पर्यायार्थिक दृष्टि से अन्यभावता हो सकती है और द्रव्यार्थिक दृष्टि से स्थिरता । अतः द्रव्यदृष्टि से अवस्थित द्रव्य में हो पर्यायदृष्टि से एक की निवृत्ति तथा अन्य की उत्पत्तिरूप परिणाम हो सकता है। 19. बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से द्रव्य में होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। वह दो प्रकार की है - बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा मेघ आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है। 20-21. प्रश्न – यदि स्थिति-ठहरना रूप क्रिया का परिणाम में अन्तर्भाव होता है, तो परिस्पन्दात्मक क्रिया का भी उसी में अन्तर्भाव हो सकता है, और ऐसी स्थिति में केवल परिणाम का ही निर्देश करना चाहिए । उत्तर – परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिए क्रिया का पृथक ग्रहण करना आवश्यक है। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य परिणाम। 22. परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं जैसे दूरवर्ती पदार्थ 'पर' और समीपवर्ती 'अपर' कहा जाता है। गुणकृत भी होते हैं जैसे अहिंसा आदि प्रशस्त गुणों के कारण धर्म 'पर' और अधर्म 'अपर' कहा जाता है । कालकृत भी होते हैं जैसे सौ वर्षवाला वृद्ध 'पर'और सोलह वर्ष का कुमार 'अपर' कहा जाता है। यहाँ कालके उपकारका प्रकरण है, अतः कालकृत ही परत्व और अपरत्व लेना चाहिए। दूरदेशवर्ती कुमार तपस्वीकी अपेक्षा समीप देशवर्ती वृद्ध चाण्डालमें कालको अपेक्षा 'पर' व्यवहार देखा जाता है और कुमार तपस्वी में 'अपर' व्यवहार । ये परत्वापरत्व कालकृत हैं। 23 वर्तना परिणाम आदि उपकार रूप लिंगों के द्वारा कालद्रव्य का अनुमान होता है। कहा भी है - "जिससे मूर्तद्रव्यों का उपचय और अपचय लक्षित होते हैं वह काल है।" 24. प्रश्न – काल के अस्तित्व की सिद्धि के लिए वर्तना का ग्रहण ही पर्याप्त है क्योंकि परिणाम आदि वर्तना के ही विशेष हैं ? उत्तर – 'मुख्यकाल और व्यवहारकाल' इन दो प्रकार के कालों की स्पष्ट सूचना के लिए यह विस्तार किया गया है। जिस प्रकार धर्म अधर्म आदि गति और स्थिति में उपकारक हैं उसी तरह वर्तना में मुख्य कालद्रव्य उपकारक है। प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालाणु द्रव्य स्थित हैं। इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। इनमें धर्मअधर्म आदि की तरह मुख्य रूप से प्रदेशप्रचय नहीं है और न पुद्गलपरमाणु की तरह प्रचयशक्ति की अपेक्षा गौण प्रदेशप्रचय ही। ये एकप्रदेशी हैं। दोनों प्रकार के प्रदेशप्रचय न होने से ये अस्तिकाय नहीं हैं। विनाश का कारण न होने से नित्य हैं । इनमें परप्रत्यय उत्पाद विनाश होता रहता है अतः अनित्य हैं । जैसे सुई में धागा जाने का मार्ग परिच्छिन्न होता है उसी तरह परिच्छिन्नमूर्ति होने पर भी रूप रसादि से रहित होने के कारण अमूर्त हैं। प्रदेशान्तर में संक्रमण न होने से निष्क्रिय हैं। व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व के द्वारा लक्षित होता है । कालकृत वर्तना का आधार होने से यह भी काल कहलाता है। यह स्वयं किसी के द्वारा परिच्छिन्न होकर अन्य पदार्थो के परिच्छेद में कारण होता है। 25. भूत, वर्तमान और भविष्यत ये तीनों काल परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं। जैसे वृक्षपंक्ति के किनारे चलनेवाले देवदत्त के कुछ वृक्ष गत कुछ गम्यमान और कुछ गमिष्यमाण होते हैं उसी तरह कालाणुओं की क्रमिक पर्यायों के अनुसार पदार्थों में भूत वर्तमान और भविष्यत व्यवहार होता है। मुख्यकाल में भूत आदि व्यवहार गौण है तथा व्यवहारकाल में मुख्य । भूत आदि व्यवहार परस्परापेक्ष हैं। जो क्रिया-परिणत द्रव्य काल-परमाणु को प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल के द्वारा वर्तमान समय-सम्बन्धी वर्तना के कारण वर्तमान कहा जाता है। कालाणु भी उस वर्तमानद्रव्य को स्व-सम्बद्ध ही वर्तन कराता है अतः वर्तमान कहा जाता है। वही जब कालवश वर्तना के सम्बन्ध को अनुभव कर चुकता है तब भूत कहा जाता है और कालाणु भी भूत । वही आगे आनेवाली वर्तना की अपेक्षा भविष्यत कहा जाता है और कालाणु भी भविष्यत । इसी तरह सूर्य की प्रतिक्षण की गति की अपेक्षा आवलि का उच्छ्वास-प्राण, स्तोक, लव, नालिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि सूर्यगतिनिमित्तक व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्र में चलता है क्योंकि मनुष्यलोक के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। इसी आवलि का आदि से तीनों लोकों के प्राणियों की कर्मस्थिति, भवस्थिति और कायस्थिति आदि का परिच्छेद होता है । इसी से संख्येय, असंख्येय, अनन्त आदि गिनती की जाती है। 26. प्रश्न – क्रियामात्र ही काल है, उससे भिन्न नहीं । क्रिया स्वयं परिच्छिन्न होकर अन्य द्रव्यों के परिच्छेद में कारण होती है अतः वही काल है। परमाणु की परिवर्तन क्रिया का समय ही 'समय' कहा जाता है, समय के परिमाण को मापनेवाला कोई दूसरा सूक्ष्मकाल नहीं है। 'समय क्रिया का समुदाय आवलिका, आवलिका का समुदाय उच्छ्वास' आदि में उच्छवास के मापने में आवलि का क्रिया काल है और आवलिका में परमाणुक्रिया रूप समयकाल है। इसी तरह आगे भी समझना चाहिए। लोकव्यवहार में भी 'गो-दोहनकाल, रसोई का समय' आदि काल व्यवहार क्रियामूलक ही हैं । एक क्रिया से दूसरी क्रिया परिच्छिन्न होती हुई काल संज्ञा प्राप्त करती है। उत्तर – ठीक है, क्रियाकृत ही यह व्यवहार होता है कि 'उच्छ्वासमात्र में किया, मुहूर्त में किया' आदि, परन्तु उच्छ्वास निश्वास मुहूर्त आदि संज्ञाओं को 'काल' व्यपदेश बिना किसी कारण के नहीं हो जाता। उसका कारण काल है अन्यथा काल व्यवहार का लोप हो जायगा। जैसे देवदर में 'दंडी' यह व्यपदेश अकस्मात् नहीं होता किन्तु उसका कारण दंड का सम्बन्ध है उसी तरह उक्त व्यवहारों में 'काल' व्यपदेश के लिए काल-द्रव्य मानना आवश्यक है। 27. क्रिया मात्र को काल मानने में वर्तमान' का अभाव हो जायगा । पट बुनते समय जो तन्तु बुना गया वह तो 'अतीत' हो गया तथा जो बुना जायगा वह 'अनागत' होगा। इन दोनों के बीच में कोई अनतिक्रान्त और अनागामिनी क्रिया है ही नहीं जिसे वर्तमान कहा जाय । अतीत और अनागत व्यवहार भी वर्तमान की अपेक्षा होता है अतः वर्तमान के अभाव में उनका भी अभाव हो जायगा । 'प्रारम्भ से लेकर कार्य समाप्ति तक होनेवाली क्रियाओं का समूह वर्तमान है' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रतिज्ञाविरोध आता है। पहिले आपने क्रिया को काल कहा था और अब 'क्रियासमूह' को काल कहते हो। फिर, क्षणिक क्रियाओं का समूह भी नहीं बन सकता। जो वर्तना-लक्षण काल भिन्न मानते हैं उनके मत में तो प्रथम समयवाली क्रिया की वर्तना से प्रारम्भ करके द्वितीय आदि समयवर्ती क्रियाओं की द्रव्यदृष्टि से स्थिति मानकर समूहकल्पना कर ली जाती है, और उस क्रियासमूह से बननेवाले घटादि की समाप्ति तक 'घट क्रिया हो रही है' यह वर्तमानकालिक प्रयोग कर दिया जाता है। यदि भिन्न रूप से उपलब्ध न होने के कारण काल का अभाव किया जाता है तो क्रिया और क्रियासमूह का भी अभाव हो जायगा । कारकों की प्रवृत्तिविशेष को क्रिया कहते हैं। प्रवृत्तिविशेष भी कारकों से भिन्न उपलब्ध नहीं होता जैसे टेढ़ापन सर्प से जुदा नहीं है उसी तरह क्रियावयवों से भिन्न कोई क्रिया नहीं है अतः क्रिया और क्रियासमूह दोनों का अभाव ही हो जायगा। क्रिया से क्रियान्तर का परिच्छेद भी नहीं हो सकता, क्योंकि स्थिर प्रस्थ आदि से ही स्थिर ही गेहूँ आदि का परिच्छेद देखा जाता है। परन्तु जब क्रिया क्षणमात्र ही ठहरती है; तो उससे अन्य क्रियाओं का परिच्छेद कैसे किया जा सकता है ? स्वयं अनवस्थित पदार्थ किसी अन्य अनवस्थित का परिच्छेदक नहीं देखा गया । प्रदीप अनवस्थित होकर अनवस्थित परिस्पन्द का परिच्छेदक होता है तभी तो 'प्रदीपवत् परिस्पन्दः' यह प्रयोग होता है, यह कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि प्रदीप या परिस्पन्द को हम सर्वथा क्षणिक नहीं मानते, कारण कि उसके प्रकाशन आदि कार्य अनेक क्षणसाध्य होते हैं। समूह में परिच्छेद्य-परिच्छेदकभाव भी नहीं बनता; क्योंकि क्षणिकों का समूह ही नहीं बन सकता। प्रश्न – जैसे क्षणिक वर्णध्वनियों का समुदाय पद और वाक्य बन जाता है उसी तरह क्रिया का समूह भी बन जायगा। उत्तर – वर्णध्वनियों का क्षणिकत्व ही असिद्ध है क्योंकि देशान्तरवर्ती श्रोताओं को वे सुनाई देती हैं। शब्दान्तर की उत्पत्ति के द्वारा देशान्तरवर्ती श्रोताओं को सुनाई देने का पक्ष भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि जिस क्षण में ध्वनि उत्पन्न हुई उसी क्षण में तो अन्यध्वनि को उत्पन्न नहीं करती, और अगले क्षण में स्वयं असत् हो जाती है। जिसकी सदवस्था समीप है उस क्षण को उत्पत्ति-काल कहते हैं, पर जिसका उत्तर काल में सत्त्व नहीं हैं उसमें उत्पत्ति व्यवहार नहीं हो सकेगा। पूर्व पूर्वज्ञानों से प्राप्त संस्कारों की आधारभूत बुद्धि में समुदाय की कल्पना भी नहीं हो सकती क्योंकि बुद्धि भी क्षणिक है । जिसके मत में द्रव्य दृष्टि से क्रिया नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य उसी के मत में बुद्धि भी नित्यानित्यात्मक होकर ही संस्कारों का आधार हो सकती है और ऐसी बुद्धि में ही शक्ति और व्यक्ति रूप से व्यवस्थित क्रिया समूह के द्वारा, जिसमें कि कालकृत वर्तना से 'काल' व्यपदेश प्राप्त हो गया है, अन्यपरिच्छेद की वृत्ति की जा सकती है । इस तरह व्यवहारकाल सिद्ध हो जाता है, और व्यवहारकाल के द्वारा मुख्यकाल सिद्ध हो जाता है। 28. परत्व की अपेक्षा अपरत्व और अपरत्व की अपेक्षा परत्व होता है, अतः इनका पृथक् ग्रहण किया है। 29. 'वर्तना' का ग्रहण सर्वप्रथम इसलिए किया है कि वह अभ्यहित है। परमार्थ काल की प्रतिपत्ति वर्तना से होती है अतः यह पूज्य है। अन्य परिणाम आदि व्यवहार काल के लिंग हैं, अतः अप्रधान हैं । बौद्ध जीव को पुद्गल शब्द से कहते हैं अतः पुद्गल की परिभाषा करते हैं -- |