
सर्वार्थसिद्धि :
अब पूर्वोक्त पुद्गलों के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - पुद्गल के दो भेद हैं -- |
राजवार्तिक :
1. 'जो अर्थ को शपति अर्थात् कहता है जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपनमात्र है वह शब्द है' इत्यादि कर्तृ करण और भावसाधनों में शब्द आदि का निर्वचन करके, परस्परापेक्षार्थक द्वन्द्व-समास के बाद मतुप प्रत्यय करना चाहिए । जो बँधे या जिसके द्वारा बाँधा जाय या बन्धनमात्र को बन्ध कहते हैं । जो लिंग के द्वारा अपने स्वरूप को सूचित करता है या जिसके द्वारा सूचित किया जाता है या सूचनमात्र है, वह सूक्ष्म है। सूक्ष्म के भाव वा कर्म को सौम्य कहते हैं । जो स्थूल होता है बढ़ता है या जिसके द्वारा स्थूलन होता है या स्थूलनमात्र को स्थूल कहते हैं । स्थूल का भाव या कर्म स्थौल्य है। जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित हो जाते हैं या संस्थिति को संस्थान कहते हैं । जो भेदन करता है, जिसके द्वारा भेदन किया जाता है या भेदनमात्र को भेद कहते हैं। पूर्वोपात्त अशुभ कर्म के उदय से जो स्वरूप को अन्धकारावृत करता या जिसके द्वारा किया जाता है या तमनमात्र को तम कहते हैं। पृथिवी आदि सघन द्रव्यों के सम्बन्ध से शरीरादि के तुल्य आकार में जो प्रकाश का आवरण करे या अपने स्वरूप का छेदन करे वह छाया है। असातावेदनीय के उदय से अपने स्वरूप को जो तपता है या जिसके द्वारा तपाया जाता है या आतपनमात्र को आतप कहते हैं । जो निरावरण को उद्योतित करता है, जिसके द्वारा उद्योतित करता है या उद्योतनमात्र को उद्योत कहते हैं। 2-5. शब्द दो प्रकार के हैं - एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द अक्षर और अनक्षर के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षरीकृत शब्दों से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है, यह संस्कृत और अन्य के भेद से आर्य और म्लेच्छों के व्यवहार का कारण होता है। अनक्षरात्मक शब्द दो इन्द्रिय आदि जीवों के होते हैं। अतिशयज्ञान-केवलज्ञान के द्वारा स्वरूप प्रतिपादन में कारणभूत भी अनक्षरात्मक भाषात्मक शब्द होते हैं। ये सब प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्द प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से दो प्रकार के हैं। मेघ आदि की गर्जना प्रायोगिक है । प्रायोगिक शब्द तत, वितत, धन और सौषिर के भेद से चार प्रकार के हैं। पुष्कर भेरी आदि में चमड़े के तनाव से जो शब्द होता है वह तत है । वीणा सुघोष आदि से जो शब्द होता है वह वितत है । ताल, घंटा आदि के अभिघात से होनेवाला शब्द धन है और बाँसुरी शंख आदि से निकलनेवाला शब्द सौषिर है। स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूप के बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं, अतः अर्थान्तर का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होतीं तो पदों से पदार्थ की तरह प्रत्येक वर्ण से अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होने पर वर्णान्तर का उपादान निरर्थक है । क्रम से उत्पन्न होनेवाली ध्वनियों का सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अतः उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होनेवाला, अर्थप्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय निरवयव और निष्क्रिय शब्द स्फोट स्वीकार करना चाहिए । उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य व्यञ्जकभाव नहीं बन सकता। जिस शब्द-स्फोट को व्यंग्य मानते हैं वह स्वरूप में स्थित है या अस्थित ? यदि स्वरूप से स्थित है, तो ध्वनियों से पहिले और बाद में उसके अनुपलब्ध होने का क्या कारण है - सूक्ष्मता या किसी प्रतिबन्धक का सद्भाव ? यदि सूक्ष्मता कारण है; तो आकाश की तरह सदा अर्थात् ध्वनिकाल में भी अनुपलब्ध रहना चाहिए। यदि ध्वनियों से उसकी सूक्ष्मता हटकर स्थूलता आ जाती है तो वह नित्य नहीं रहेगा, क्योंकि उसमें विकार आ गया है। घट की उपलब्धि के लिए प्रतिबन्धकभूत अन्धकार की तरह यहाँ कोई प्रतिबन्धक भी नहीं है । अन्धकार केवल अभावात्मक नहीं है किन्तु नील वर्ण की तरह अतिशयवाला और वृद्धि-हानिवाला होने से वह वस्तुभूत है। यदि स्फोट स्वरूप से अनवस्थित है तो वह व्यङ्ग्य नहीं हो सकता और न ध्वनियाँ व्यञ्जक; किन्तु ध्वनियों से स्वरूपलाम करने के कारण उसे कार्य मानना होगा। किंच, प्रथम ध्वनि शव्दस्फोट को यदि पूरे रूप से प्रकट कर देती है तो दूसरी तीसरी आदि ध्वनियाँ निरर्थक हो जायँगी। यदि उसके एकदेश को प्रकट करती हैं तो वह निरवयव नहीं रहकर सावयव हो जायगा । किंच, ध्वनियाँ स्फोट की व्यञ्जक होती हैं तो वे स्फोट का उपकार करेंगी या श्रोत्र का या दोनों का? जिस प्रकार जल के सींचने से पृथिवी की गन्ध प्रकट होती है उस तरह ध्वनियाँ स्फोट का उपकार नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह नित्य है, अतः उसमें विकार या किसी के द्वारा किया गया कोई अतिशय नहीं आ सकता। अमूर्त, नित्य और अभिव्यङ्ग्य स्फोट में कोई विकार हो नहीं सकता। जिसप्रकार अंजन चक्षु का उपकारक होता है उस तरह ध्वनियाँ श्रोत्र का भी उपकार नहीं कर सकतीं; क्योंकि वधिर-बहरे की इन्द्रिय में तो उपकार हो नहीं सकता । स्वस्थ कर्ण का उपकार यही है कि उसके द्वारा शब्द का बोध हो जाय । सो यह कार्य तो जब ध्वनियों से ही हो जाता है तो फिर स्फोट की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है। इसी तरह दोनों का उपकार भी नहीं बनता । किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? यदि क्षणिक होकर भी वे स्फोट की अभिव्यक्ति कर सकती हैं तो सीधा अर्थबोध कराने में क्या बाधा है ? जिससे एक निरर्थक स्फोट माना जाय ? दीपक भी सर्वथा क्षणिक नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा देशान्तरवर्ती पदार्थों का प्रकाश होता है। 'कर्मव्यक्तियाँ क्षणिक होकर भी कर्मत्व जाति की अभिव्यक्ति करती हैं। यह पक्ष भी ठीक नहीं है ; क्योंकि हम द्रव्य गुण और कर्म में रहनेवाला भिन्न सामान्य पदार्थ ही नहीं मानते । कर्म भी द्रव्य से भिन्न पदार्थ नहीं है और द्रव्य दृष्टि से वह स्थिर है क्षणिक नहीं। किंच, अभिव्यंजक और अभिव्यंग्यों से विलक्षण होने के कारण भी स्फोट की अभिव्यक्ति की कल्पना करना उचित नहीं है । जैसे मूर्त और क्रियावान् दीपक के द्वारा मूर्त और सक्रिय ही घटादि अभिव्यक्त होते हैं उस तरह न तो ध्वनियाँ ही मूर्त और क्रियाशील हैं और न स्फोट ही । अतः अभिव्यक्ति की कल्पना उचित नहीं है । किंच, स्फोट यदि ध्वनियों से अभिन्न है तो दोनों के एक ही हो जाने से वह व्यंग्य नहीं रह सकेगा। यदि भिन्न है तो श्रोत्रेन्द्रिय से उपलब्ध नहीं होना चाहिए । किंच, यदि स्फोट को व्यंग्य मानते हैं तो उसमें घटादि की तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए । 'ज्ञान के द्वारा अभिव्यङ्गय आकाश होता है और वह नित्य है अतः उक्त साधन व्यभिचारी है' यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि हम 'मूर्तिमान के द्वारा व्यंग्य होने से' ऐसा विशिष्ट हेतु देंगे, फिर जो व्यंग्य होते हैं वे कार्य भी देखे जाते हैं जैसे कि घटादि । पर स्फोट को तो सर्वथा नित्य माना गया है अतः वह व्यंग्य से विलक्षण होने के कारण व्यंग्य नहीं बन सकता । 'महान् अहंकार' आदि सांख्याभिमत तत्वों का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोट की व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वों की भी। फिर, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं मिलता जो अमूर्त, नित्य और निरवयव होकर मूर्त, अनित्य और सावयव से व्यंग्य होता हो । अतः शब्द ध्वनिरूप ही है और वह नित्यानित्यात्मक है यह स्वीकार करना चाहिए । वह पुद्गल-द्रव्य की दृष्टि से नित्य है, श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा सुनने योग्य पर्यायसामान्य की दृष्टि से कालान्तर स्थायी है और प्रतिक्षण की पर्याय की अपेक्षा क्षणिक है। 6. बन्ध प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से दो प्रकार का है। वैस्रसिक बन्ध भी आदिमान और अनादिमान के भेद से दो प्रकार का होता है । स्निग्ध रूक्ष गुणों के निमित्त से बिजली, उल्का, जलधारा, इन्द्रधनुष आदि रूपपुगल बन्ध आदिमान् है। अनादि वैस्रसिक बन्ध नव प्रकार का है - धर्मास्तिकाय बन्ध, धर्मास्तिकाय देशबन्ध, धर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, अधर्मास्तिकाय बन्ध, अधर्मास्तिकाय देशबन्ध, अधर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, आकाशास्तिकायबन्ध, आकाशास्तिकाय देशबन्ध और आकाशास्तिकाय प्रदेशबन्ध । सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय है, आधा देश और आधे का आधा प्रदेश कहलाता है । कालाणुओं का कभी परस्पर विश्लेष नहीं होता अतः उनका वैस्रसिक सम्बन्ध अनादि है । एक जीव के प्रदेशों का संहरण और विसर्पण स्वभाव होने पर भी परस्पर विश्लेष नहीं होता अतः अनादि बन्ध है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल का कभी भी परस्पर वियोग नहीं होता अतः इनका अनादि बन्ध है । नानाजोवों का भी सामान्य दृष्टि से अन्य द्रव्यों के साथ अनादि सम्बन्ध है। पुद्गल द्रव्यों में भी महास्कन्ध आदि का सामान्य रूप से अनादि बन्ध है। इस तरह सब द्रव्यों में बन्ध की सम्भावना है, पर पुद्गल का प्रकरण होने से यहाँ पुद्गलबन्ध ही लेना चाहिए। 7-9. विनसा अर्थात् स्वाभाविक । पुरुषार्थ की अपेक्षा 'विधि' होती है । विधि से उलटा 'विस्रसा' शब्द है । प्रयोग अर्थात् पुरुष का काय, वचन और मन का संयोग । जो प्रयोगजन्य है उसे प्रायोगिक कहते हैं । यह दो प्रकार का है - एक अजीवविषयक और दूसरा जीव और अजीव विषयक । लाख और काठ आदि का बन्ध अजीवविषयक बन्ध है। कर्म और नोकर्मबन्ध जीव और अजीव विषयक है । कर्मबन्ध ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार का है। नोकर्मबन्ध औदारिकादि शरीर विषयक है । बन्ध पाँच प्रकार का भी है - आलपन, आलयन, संश्लेष, शरीर और शरीरी के भेद से । रथ गाड़ी आदि का लोहे की साँकल रस्सा आदि से खींचकर बाँधना आलपन बन्ध है । दीवाल मकान आदि का मिट्टी का गारा ईंट आदि से परस्पर चिनना आलयन बन्ध है । लाख काठ आदि का संश्लेष बन्ध है । शरीर बन्ध औदारिक आदि शरीर के भेद से पाँच प्रकार का है। यह संयोगज भंग की अपेक्षा पन्द्रह प्रकार का भी है।
10-11. सौक्ष्म्य और स्थौल्य दो दो प्रकार के हैं - एक अन्त्य और दूसरे आपेक्षिक । अन्त्य सौम्य परमाणुओं में है और आपेक्षिक सौक्ष्म्य बेर, आँवला, बेल, ताड़फल आदि में है । इसी तरह अन्त्य स्थौल्य जगद्व्यापी महास्कन्ध में तथा आपेक्षिक बेर, आँवला, बेल आदि में है। 12-13. संस्थान-आकृति दो प्रकार का है - एक इत्थंलक्षण और दूसरा अनित्थंलक्षण । गोल, तिकोना, चौकोना, लम्बा, चौड़ा आदि रूप से जिसका वर्णन किया जा सके वह इत्थंलक्षण है। उससे भिन्न मेघ आदि का संस्थान 'यह ऐसा है' ऐसा निरूपण न कर सकने के कारण अनित्थंलक्षण है। 14. भेद छह प्रकार का है - उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन के भेद से । लकड़ी का आरा आदि से चीरना उत्कर है । गेहूँ, चना आदि का सत्त चून आदि बनाना चूर्ण है । घड़े के खप्पर हो जाना खंड है। उड़द मूंग आदि की दाल बनाना चूर्णिका है। अभ्रक आदि के पटल प्रतर हैं । गरम लोहे को घन से कूटने पर जो फुलिंगे निकलते हैं उन्हें अणुचटन कहते है। 15. दृष्टि का प्रतिबन्ध करनेवाला अन्धकार है, जिसे हटाने के कारण दीपक प्रकाशक कहा जाता है । 16-17. प्रकाश के आवरणभूत शरीर आदि से छाया होती है। छाया दो प्रकार की है - दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्यों में आदर्श के रंग आदि की तरह मुखादि का दिखना तद्वर्णपरिणता छाया है तथा अन्यत्र प्रतिबिम्ब मात्र होती है। प्रसन्नद्रव्य के परिणमन विशेष से पूर्वमुख पदार्थ की पश्चिममुखी छाया पड़ती है । मीमांसक का यह मत ठीक नहीं है कि - 'दर्पण में छाया नहीं पड़ती किन्तु नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापिस लौटती हैं और अपने मुख को ही देखती हैं।' क्योंकि नेत्र की किरणें जैसे दर्पण से टकराकर मुख को देखती हैं उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुख को देखना चाहिए । इसी तरह जब किरणें वापिस आती हैं तो पूर्वदिशा की तरफ जो मुख है वह पूर्वाभिमुख ही दिखाई देना चाहिए पश्चिमाभिमुख नहीं । मुख की दिशा बदलने का कोई कारण नहीं है। फिर ये नेत्र रश्मियाँ मन के अधिष्ठान के बिना पदार्थ के ग्रहण में समर्थ भी नहीं हो सकतीं । 18. सूर्यादि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं। 19. चन्द्र, मणि, जुगनू आदि के प्रकाश को उद्योत कहते हैं। 20-21. क्रिया भी पुद्गल की पर्याय है। इसका ग्रहण धर्म, अधर्म और आकाश में क्रिया का निषेध करने से हो ही जाता है । इस प्रकार 'काल' द्रव्य में पुद्गल की तरह क्रियावत्त्व का प्रसंग नहीं होता; क्योंकि 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' यहाँ अस्तिकायों के निर्देश में 'काल' का ग्रहण ही नहीं किया है। यदि यहाँ पाठ होता तो 'आ आकाशादेकद्रव्याणि निष्कियाणि' इन सूत्रों से बाह्य होने के कारण काल में भी पुद्गल की तरह क्रियावत्त्व का प्रसंग आता। अथवा यदि काल को सक्रिय मानना इष्ट होता तो 'द्रव्याणि जीवाः, कालश्च' ऐसा पूर्वनिर्देश किया होता । ऐसी हालतमें 'जीवाश्च' यहाँ 'च' शब्द नहीं देना पड़ता और 'कालश्च' यह पृथक्सूत्र भी नहीं बनाना पड़ता। अनन्त समयों की सूचना के लिए 'कालश्च' सूत्र की सार्थकता बताना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'आकाशस्यानन्ताः कालश्च' इस प्रकार सूत्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध हो सकता था। इस तरह लघु न्याय से सब कार्य सिद्ध हो जाने पर भी जो आगे 'कालश्च' ऐसा पृथक् सूत्र बनाया गया है उससे ज्ञात होता है कि काल में क्रियावत्त्व इष्ट नहीं है। यह निष्क्रियता परिस्पन्दरूप क्रिया की अपेक्षा से है 'अस्ति' आदि भावात्मक क्रियाओं की अपेक्षा से नहीं। अतः अनादि पारिणामिक अस्ति आदि क्रिया की दृष्टि से काल द्रव्य क्रियावान है और देशान्तर प्राप्ति कराने में समर्थ परिस्पन्दरूप क्रिया की अपेक्षा काल निष्क्रिय है । 22. क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदि के भेद से दस प्रकार की है। बाण चक्र आदि की प्रयोग गति है । एरण्डबीज आदि की बन्धाभाव गति है । मृदंग, भेरी, शंखादि के शब्द पुद्गलों की जो दूर तक जाते हैं छिन्नगति है । गेंद आदि की अभिघातगति है । नौका आदि की अवगाहनगति है । पत्थर आदि की नीचे की ओर गुरुत्वगति है । तुंबड़ी, रुई आदि की लघु गति है । सुरा, सिरका आदि की संचार गति है। मेघ, रथ, मूसल, आदि की क्रमशः वायु, हाथी तथा हाथ के संयोग से होनेवाली संयोग गति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभावगति है। अकेली वायु की तिर्यक गति है। भस्त्रादि के कारण वायु की अनियत गति होती है। अग्नि की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है। कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणुकी अनियत गति है । मुक्त होनेवाले जीवों की ऊर्ध्वगति है । ज्योतिषियों का नरलोक में नित्य भ्रमण होता है। 22-23 जैसे 'सारवान् स्तम्भः' या 'आत्मवान् पुरुषः' यहाँ अभेद में भी मत्वर्थीय प्रयोग देखा जाता है, उसी तरह इस सूत्र में भी समझना चाहिए । मत्वर्थीय का 'दण्डी देवदत्तः' की तरह एकान्त भिन्नता में ही प्रयोग होने का नियम नहीं है। फिर शब्दादि भी पर्यायदृष्टि से पुद्गल द्रव्य से भिन्न हैं । गरम लोहे की तरह पुद्गल का ही शब्दादि रूप से परिणमन होता है, अतः स्यात् अभिन्नत्व है। 24 स्पर्शादि परमाणुओं के भी होते हैं और स्कन्धों के भी, पर शब्दादि व्यक्तरूप से स्कन्धों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक सूत्र बनाया है। सौक्ष्य का इस सूत्र में निर्देश स्थौल्य का प्रतिपक्ष सूचन करने के लिए खास तौर से किया गया है। 25. 'स्पर्शादि गुणों का एकजातीय परिणमन होता है। इसकी सूचना करने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है। जैसे कठिन स्पर्श अपनी जाति को न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदों के उत्पाद विनाश को करता हुआ दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्तगुण कठिन स्पर्श पर्यायों से ही परिणत होता है मृदु, गुरु, लघु आदि स्पर्शों से नहीं । इसी तरह मृदु आदि भी। तिक्तरस रस जाति को न छोड़कर उत्पाद विनाश को प्राप्त होकर भी दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त गुण तिक्तरस रूप से ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसों से नहीं। इसी तरह कटुक आदि में भी समझना चाहिए । एक सुगन्ध अपनी जाति को न छोड़कर दो आदि अनन्तगुण सुगन्ध पर्यायों से ही परिणत होगा दुर्गन्ध रूप से नहीं । इसी तरह दुर्गन्ध भी । शुक्ल वर्ण अपनी जाति को न छोड़कर पूर्व उत्तर के नाश और उत्पाद का अनुभव करता हुआ दो आदि अनन्तगुण शुक्ल वर्गों से ही परिणमन करता है, नीलादि रूप से नहीं । इसी तरह नीलादि में भी समझना चाहिए। प्रश्न – जब कठिन स्पर्श मृदु रूप में, गुरु लघु रूप में, स्निग्ध सूक्ष्म में और शीत उष्ण में बदलता है, इसी तरह तिक्त कटुक आदि रूप से, सुगन्ध दुर्गन्ध रूप से, शुक्ल कृष्णादि रूप में तथा और भी परस्पर संयोग से गुणान्तर रूप में परिणमन करते हैं तब यह एकजातीय परिणमन का नियम कैसे रहेगा ? उत्तर – ऐसे स्थानों में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जाति को न छोड़कर ही मृदु स्पर्श से विनाश उत्पाद का अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूप में नहीं । इसी तरह अन्य गुणों में भी समझ लेना चाहिए। 26. च शब्द से नोदन अभिधात आदि जितने भी पुद्गल परिणाम हो सकते हैं उन सबका समुच्चय हो जाता है। पुद्गल के भेद - |