
सर्वार्थसिद्धि :
प्रमाद कषाय सहित अवस्था को कहते हैं और इस प्रमाद से युक्त जो आत्मा का परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है। तथा प्रमत्त का योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्ध से इन्द्रियादि दस प्राणों का यथासम्भव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा कही जाती है। इससे प्राणियों को दुःख होता है, इसलिए वह अधर्म का कारण है। केवल प्राणों का वियोग करने से अधर्म नहीं होता है यह बतलाने के लिए सूत्र में 'प्रमत्तयोग से' यह पद दिया है। कहा भी है- 'यह प्राणी दूसरे को प्राणों से वियुक्त करता है तो भी उसे हिंसा नहीं लगती।' और भी कहा है- 'ईर्यासमिति से युक्त साधु के अपने पैर के उठाने पर चलने के स्थान में यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैर से दब जाय और उसके सम्बन्ध से मर जाय तो भी उस निमित्त से थोड़ा भी बन्ध आगम में नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्म दृष्टि से मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणाम को हिंसा कहा है।।' शंका – प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से ही हिंसा कही जाती है। कहा भी है - 'जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है और जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, हिंसा के हो जाने पर भी उसे बन्ध नहीं होता।।' समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भी भावरूप प्राणों का नाश है ही। कहा भी है- 'प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मत होवे।' हिंसा का लक्षण कहा। अब उसके बाद असत्य का लक्षण बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- |
राजवार्तिक :
1-5. इन्द्रियों के प्रचारविशेष का निश्चय न करके प्रवृत्ति करनेवाला प्रमत्त है। जैसे मदिरा पीनेवाला मदोन्मत्त होकर कार्याकार्य और वाच्यावाच्य से अनभिज्ञ रहता है उसी तरह प्रमत्त जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और जीवाश्रयस्थान आदि को नहीं जानकर कर्मोदय से हिंसा व्यापारों को ही करता रहता है और सामान्यतया अहिंसा में प्रयत्नशील नहीं होता। अथवा, चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादों से युक्त प्रमात है। योग-सम्बन्ध । यहाँ आत्मा का परिणाम ही कर्ता है अतः जो प्रमादरूप से परिणत होता है वह परिणाम प्रमत्त कहलाता है, उस परिणाम के योग-सम्बन्ध से । अथवा योग अर्थात् मन-वचन-काय की क्रिया । प्रमत्त-प्रमादपरिणत व्यक्ति के योग-व्यापार को प्रमत्तयोग कहते। 6-11. व्यपरोपण-वियोग करना । प्राणों के वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है अतः प्राण का ग्रहण किया है, क्योंकि स्वतः प्राणी तो निरवयव है उसका क्या वियोग होगा ? प्राण आत्मा से सर्वथा मिन्न नहीं है, जिससे प्राणवियोग होने पर भी हिंसा न मानी जाय किन्तु प्राणवियोग होने पर आत्मा को ही दुःख होता है अतः हिंसा है और अधर्म है। 'शरीरी आत्मा प्राणों से भिन्न है अतः उसके वियोग में भी आत्मा को दुःख नहीं होना चाहिए' यह शंका ठीक नहीं है ; क्योंकि जब सर्वथा भिन्न पुत्र, कलत्र आदि के वियोग में आत्मा को परिताप होता है तब कथंचित भिन्न प्राणों के वियोग में तो होना ही चाहिए। यद्यपि शरीर और शरीरी में लक्षणभेद से नानात्व है फिर भी बन्ध के प्रति दोनों एक हैं अतः शरीर-वियोग-पूर्वक होनेवाला दुःख आत्मा को ही होता है, अतः हिंसा और अधर्म है । हाँ, जो आत्मा को निष्क्रिय, नित्य, शुद्ध और सर्वगत मानते हैं उनके यहाँ शरीर से बन्ध नहीं हो सकेगा और न दुःख ही होगा अतः उनके मत में हिंसा नहीं हो सकती। 12. प्रमत्तयोग और प्राणव्यपरोपण ये दोनों विशेषण यह सूचना करते हैं कि दोनों के होने पर हिंसा होती है, एक के भी अभाव में हिंसा नहीं होती। तात्पर्य यह कि जब प्रमत्तयोग नहीं होता, केवल प्राणव्यपरोपण है तो वह हिंसा नहीं कही जायगी । कहा भी है "प्राणों से वियोग करता हुआ भी (अप्रमत्त ) वध से लिप्त नहीं होता" "ईर्यासमितिपूर्वक गमन करनेवाले साधु के पैर के नीचे यदि कोई जीव आ जाय और मर जाय तो भी उसे तन्निमित्तक सूक्ष्म भी बन्ध नहीं होता। अध्यात्मप्रमाण से तो मूर्छा-ममत्वभाव को ही परिग्रह कहा है।" प्रश्न – आपने दोनों विशेषणों को आवश्यक बताया है पर शास्त्र में तो प्राणव्यपरोपण नहीं होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से भी हिंसा बताई है ? कहा भी है - "जीव मरे या न मरे परन्तु सावधानीपूर्वक नहीं बरतनेवाले को हिंसा है ही। जो प्रयत्नशील है उसके द्वारा हिंसा भी हो जाय पर उसे बन्ध नहीं होता" ? उत्तर – जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ स्वयं के ज्ञान-दर्शन आदि भावप्राणों का वियोग होता ही है। अतः भावप्राणों के वियोग की अपेक्षा दोनों विशेषण सार्थक हैं। कहा भी है - "प्रमाद्वान् आत्मा अपने प्रमादी भावों से पहिले स्वयं अपनी हिंसा करता ही है, दूसरे प्राणी का पीछे वध हो या न भी हो।" अतः यह दोष भी नहीं होता है कि - "जल में, थल में और आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत् में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ?" क्योंकि ज्ञान-ध्यान-परायण अप्रमत्त भिक्षु को मात्र प्राणवियोग से हिंसा नहीं होती। जीव भी स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं, उनमें जो सूक्ष्म हैं वे तो न किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं अतः उनकी तो हिंसा होती नहीं है । जो स्थूल जीव हैं उनकी यथाशक्ति रक्षा की जाती है। जिनकी हिंसा का रोकना शक्य है उसे प्रयत्नपूर्वक रोकनेवाले संयत के हिंसा कैसे हो सकती है ? 13. यदि प्राणी-आत्मा का सद्भाव न माना जाय तो कर्ता का अभाव होने से कुशल और अकुशल कर्मपूर्वक होनेवाले प्राणों का भी अभाव हो जायगा । अतः कर्मभूत प्राणों का सद्भाव ही कतृभूत प्राणी का सद्भाव सिद्ध करता है, जिस प्रकार कि सँडसी आदि हथियारों से लुहार की सत्ता सिद्ध होती है। एक आत्मा की सत्ता न मानने पर रूपण, अनुभवन, उपलम्भन, निमित्तग्रहण और संस्करण आदि भिन्नलक्षणवाले रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार नामक पाँचों स्कन्ध जब परस्परोपकार के प्रति उत्सुकता से रहित हैं और क्षणिक होने से अपना ही कार्य करने में असमर्थ हैं तो वे हिंसा-व्यापार में समर्थ नहीं हो सकते। स्मृति, अभिप्राय और संकल्प रूप चित्त जब भिन्नाधिकरण हैं, एक कर्तारूप से उनका प्रतिसन्धान नहीं होता, तब हिंसा आदि व्यापार कैसे हो सकेंगे ? उत्पत्ति के बाद ही तुरंत विनाश मानने पर तथा विनाश को निर्हेतुक मानने से प्राणविनाशरूप हिंसा का भी कोई हेतु नहीं हो सकता, जब और हिंसक नहीं होगा तब किसी को क्यों हिंसा का फल लगेगा ? यदि हिंसा के अकारण को भी हिंसा का फल मिलता है तो जगत् में कोई अहिंसक ही नहीं रह सकेगा। 'भिन्न सन्तान-प्राणवियुक्तरूप क्षणों को उत्पन्न करनेवाला हिंसक है' यह कल्पना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा असत् की उत्पत्ति का कोई कारण ही नहीं हो सकता। यदि असत् की उत्पत्ति का हेतु माना जाता है तो सत् के विनाश का भी कारण मानना चाहिए । तात्पर्य यह कि विनाश का निर्हेतुक मानना खंडित हो जाता है। |