
सर्वार्थसिद्धि :
दर्शन आदिक चार हैं और तीन आदिक भी चार हैं । वहॉं इनका यथाक्रम से सम्बन्ध होता है । यथा - दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है, चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है, अकषायवेदनीय नौ प्रकार का है और कषायवेदनीय सोलह प्रकार का है । उनमें से दर्शनमोहनीय के तीन भेद ये हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय । वह बन्ध की अपेक्षा एक होकर सत्कर्म की अपेक्षा तीन प्रकार का है । इन तीनों में से जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरूत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है । वहीं मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीनरूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है तब वह सम्यक्त्व है । इसका वेदन करने वाला पुरूष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय कहा जाता है । इसी का दूसरा नाम सम्यग्मिथ्यात्व है । इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्र परिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है । चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है- अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय । यहाँ ईषद् अर्थात् किंचित् अर्थ में 'नञ्' का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को अकषाय कहा है । हास्य आदि के भेद से अकषायवेदनीय के नौ भेद हैं । जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य है । जिसके उदय से देश आदि में उत्सुकता होती है वह रति है । अरति इससे विपरीत है । जिसके उदय से शोक होता है वह शोक है । जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है । जिसके उदय से आत्म-दोषों का संवरण और परदोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है । जिसके उदय से स्त्रीसम्बंधी भावों को प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है । जिसके उदय से पुरुषसम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह पुंवेद है और जिसके उदय से नपुंसकसम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह नपुंसकवेद है । अनन्तानुबन्धी आदि के विकल्प से कषायवेदनीय के सोलह भेद हैं । यथा- क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय हैं । इनकी चार अवस्थाएँ हैं - अनन्तानुबन्धी,अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । अनन्त संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अर्थात् अनन्त के अनुबन्धी हैं वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । जिनके उदय से जिसका दूसरा नाम संयमासंयम है ऐसी देशविरति को यह जीव स्वल्प भी करने में समर्थ नहीं होता है वे देशप्रत्याख्यान को आवृत करने वाले अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । जिनके उदय से संयम नामवाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्थ नहीं होता है वे सकल प्रत्याख्यान को आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । 'सं' एकीभाव अर्थ में रहता है । संयम के साथ अवस्थान होने में एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । ये सब मिलकर सोलह कषाय होते हैं । मोहनीय के अनन्तर उद्देशभाक् आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों का विशेष ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1. दर्शन आदि का तीन आदि से क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिए। अर्थात्
2. दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र । दर्शनमोहनीय-कर्म बन्ध की अपेक्षा एक होकर भी सत्ता की अपेक्षा तीन प्रकार का है। जिसके उदय से सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से पराङमुख होकर तत्त्वश्रद्धान से निरुत्सुक और हिताहित विभाग में असमर्थ मिथ्यादृष्टि हो जाता है, वह मिथ्यात्व है। शुभ-परिणामों से जब उसका अनुभाग रोक दिया जाता है और जब वह उदासीन रूप से स्थित रहकर आत्मश्रद्धान को नहीं रोकता तब वही सम्यक्त्व प्रकृति रूप बन जाता है और उसके उदय में भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। जब वही मिथ्यात्व आधा शुद्ध और आधे अशुद्ध रसवाला होता है तब धोने से क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों की तरह मिश्र या तदुभय कहा जाता है । इसके उदय से आधे शुद्ध कोदों से जिस प्रकार का मद होता है उसी तरह के मिश्रभाव होते हैं। 3. चारित्रमोहनीय अकषाय और कषाय के भेद से दो प्रकार का है। जैसे 'अलोमिका' कहने से रोम का सर्वथा निषेध नहीं होता किन्तु काटने लायक बड़े रोमों का अभाव ही होता है उसी तरह अकषाय शब्द से कषाय का निषेध नहीं है किन्तु ईषत् कषाय विवक्षित है। ये स्वयं कषाय न होकर दूसरे के बल पर कषाय बन जाती हैं। जैसे कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर काटने को दौड़ता है और स्वामी के इशारे से ही वापिस आ जाता है उसी तरह क्रोधादि कषायों के बल पर ही हास्य आदि नोकषायों की प्रवृत्ति होती है, क्रोधादि के अभाव में ये निर्बल रहती हैं, इसीलिए इन्हें ईषत्कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं। 4. अकषायवेदनीय हास्य आदि के भेद से नव प्रकार का है।
5. कषायवेदनीय अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि के भेद से सोलह प्रकार का है।
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