
सर्वार्थसिद्धि :
जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को जाता है वह गति है। वह चार प्रकार की है – नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति। जिसका निमित्त पाकर आत्मा का नारक भाव होता है वह नरकगति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष गतियों में भी योजना करनी चाहिए। उन नरकादि गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने रुप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है । और इसका निमित्त जाति नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है - एकेन्द्रिय जाति नामकर्म, द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म, त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म। जिसके उदयसे आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी योजना करनी चाहिए। जिसके उदयसे आत्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है – औदारिक शरीर नामकर्म, वैक्रियिक शरीर नामकर्म, आहारक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म। इनका विशेष व्याख्यान पहले कर आये हैं। जिसके उदय से अगोपांग का भेद होता है वह अंगोपांग नामकर्म है। वह तीन प्रकार का है- औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारक शरीर अंगोपांग नामकर्म। जिसके निमित्त से परिनिष्पत्ति अर्थात् रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। वह दो प्रकार का है- स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण्। वह जाति नामकर्म के उदय का अवलम्बन लेकर चक्षु आदि अवयवों के स्थान और प्रमाण की रचना करता है। निर्माण शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - 'निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम', जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण कहलाता है। शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए पुद्गलों का अन्योन्य प्रदेश संश्लेष जिसके निमित्तसे होता है वह बन्धन नामकर्म है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेश द्वारा एकरुपता आती है वह संघात नामकर्म है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है वह संस्थान नामकर्म है। वह छह प्रकार का है- समचतुरस्त्र संस्थान नामकर्म, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान नमकर्म, स्वाति संस्थान नामकर्म, कुब्जकसंस्थान नामकर्म, वामनसंस्थान नामकर्म और हुण्डसंस्थान नामकर्म । जिसके उदयसे अस्थियों का बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। वह छह प्रकार का है – वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचसंहनन नामकर्म, नाराचसंहनन नामकर्म, अर्धनाराचसंहनन नामकर्म, कीलिकासंहनन नामकर्म, और असम्प्रातासृपाटिकासंहनन नामकर्म। जिसके उदय से स्पर्श की उत्पति होती है वह स्पर्श नामकर्म है। वह आठ प्रकार का है- कर्कश नामकर्म, मृदु नामकर्म, गुरु नामकर्म, लघु नामकर्म, स्निग्ध नामकर्म, रुक्ष नामकर्म, शीत नामकर्म और उष्ण नामकर्म। जिसके उदय से रस में भेद होता है वह रस नामकर्म है । वह पाँच प्रकार का है – तिक्त नामकर्म, कटु नामकर्म, कषाय नामकर्म, आम्ल नामकर्म, और मधुर नामकर्म। जिसके उदय से गंध की उत्पत्ति होती है वह गंध नामकर्म है। वह दो प्रकार का है – सुरभिगन्ध नामकर्म और असुरभिगन्ध नामकर्म। जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है वह वर्ण नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है--- कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रक्तवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । जिसके उदय से पूर्व शरीर के आकार का विनाश नहीं होता है वह आनुपूर्व्य नामकर्म है। वह चार प्रकार का है— नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानूपूर्व्य नामकर्म, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म । जिसके उदय से लोहे के पिण्ड के समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिसके उदय से स्वयंकृत उद्बन्धन और मरुस्थल में गिरना आदि निमित्तक उपघात होता है वह उपघात नामकर्म है। जिसके उदय से परशस्त्रादिक का निमित्त पाकर व्याघात होता है वह परघात नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर में आतप की रचना होती है वह आतप नामकर्म है । वह सूर्यबिम्ब में होता है। जिसके निमित्त से शरीर में उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है। वह चन्द्रबिम्ब और जुगूनू आदि में होता है। जिसके निमित्त से उच्छ्वास होता है वह उच्छ्वास नामकर्म है। विहायस् का अर्थ आकाश है। उसमें गति का निर्वर्तक कर्म विहायोगति नामकर्म है। प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से वह दो प्रकार का है। शरीर नामकर्म के उदय से रचा जानेवाला जो शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है वह प्रत्येकशरीर नामकर्म हैं। बहुत आत्माओं के अपभोग का हेतुरुप से साधारण शरीर जिसके निमितसे होता है वह साधारणशरीर नामकर्म है। जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक में जन्म होता है वह त्रस नामकर्म है। जिसके निमित्त से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। जिसके उदय से अन्यजन प्रीतिकर अवस्था होती है वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय से रुपादि गुणों से युक्त होकर भी अप्रीतिकर अवस्था होती है वह दुर्भग नामकर्म है । जिसके निमित्त से मनोज्ञ स्वर की रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है। इससे विपरीत दु:स्वर नामकर्म है। जिसके उदय से रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है। सूक्ष्म शरीर का निर्वर्तक कर्म सूक्ष्म नामकर्म है। अन्य बाधाकर शरीर का निर्वर्तक कर्म बादर नामकर्म है। जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। वह छह प्रकार का है – आहारपर्याप्ति नामकर्म, शरीरपर्याप्ति नामकर्म, इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म, प्राणापानपर्याप्ति नामकर्म, भाषापर्याप्ति नामकर्म और मन:पर्याप्ति नामकर्म। जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के अभाव का हेतु है वह अपर्याप्ति नामकर्म है। स्थिरभाव का निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है। इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है । प्रभायुक्तशरीर का कारण आदेय नामकर्म है। निष्प्रभ शरीर का कारण अनादेय नामकर्म है। पुण्य गुणों की प्रसिद्धि का कारण यश:कीर्ति नामकर्म है। इससे विपरीत फलवाला अयश:कीर्ति नामकर्म है । आर्हन्त्य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है। नामकर्म के उत्तर प्रकृतिविकल्प कहे। इसके बाद कहने योग्य गोत्रकर्म के प्रकृतिविकल्पों का व्याख्यान करते हैं - 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राजवार्तिक :
1. जिसके उदय से आत्मा पर्यायान्तर के ग्रहण करने के लिए गमन करता है वह गति है। 'गम्यते इति गतिः' ऐसी व्युत्पत्ति करने पर भी गति शब्द गो शब्द की तरह रूढि से एक गतिविशेष में प्रयुक्त होता है। अन्यथा जब आत्मा गमन नहीं करता उस समय तथा कर्म की सत्ता अवस्था में गतिव्यपदेश नहीं हो सकेगा। नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतियाँ हैं। जिसके निमित्त से आत्मा में नारक भाव हों वह नरक गति है । इसी तरह उन-उन तिर्यच आदि भावों को प्राप्त करानेवाली तिर्यग्गति आदि हैं। 2. नरकादि गतियों में अव्यभिचारी सादृश्य से एकीकृत स्वरूप जाति है। जातिव्यवहार में निमित्त जाति नामकर्म है । जाति पाँच प्रकार की है - एकेन्द्रिय-जाति, द्वीन्द्रिय-जाति, त्रीन्द्रिय-जाति, चतुरिन्द्रिय-जाति और पंचेन्द्रिय-जाति । जिसके उदय से आत्मा 'एकेन्द्रिय' कहा जाय वह एकेन्द्रिय जाति है। इसी तरह अन्य भी समझना चाहिए। 3. जिसके उदय से आत्मा की शरीर रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण के भेद से शरीर पाँच प्रकार का है। 4. जिसके उदय से सिर, पीठ, जाँघ, बाहु, उदर, नल, हाथ और पैर ये आठ अंग तथा ललाट नासिका आदि उपांगों का विवेक हो वह अंगोपांग नाम कर्म है । वह तीन प्रकार का है - औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग, और आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग । 5. जिसके निमित्त से अङ्ग और उपाङ्गों की रचना हो वह निर्माण नाम कर्म है। वह दो प्रकार है - स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । यह जाति नाम कर्म के उदय की अपेक्षा चक्षु आदिके स्थान और प्रमाण की रचना करता है । जिससे रचना की जाय वह निर्माण है। 6. शरीर नाम-कर्म के उदय से गृहीत पुद्गलों का परस्पर प्रदेश-संश्लेष जिससे हो वह बन्धन नाम कर्म है। इसके अभाव में शरीर लकड़ियों के ढेर जैसा हो जाता। 7. जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों का निश्छिद्र परस्पर-संश्लिष्ट संगठन होता है वह संघात नाम कर्म है। 8. जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के आकार बने वह संस्थान नाम कर्म है। वह छह प्रकार का है।
9. जिसके उदय से हड़ियों के बन्धन-विशेष होते हैं वह संहनन नाम कर्म है । यह भी छह प्रकार का है।
10. जिसके उदय से विलक्षण स्पर्श आदि का प्रादुर्भाव हो वे स्पर्श आदि नामकर्म हैं ।
11. जिसके उदय से विग्रहगति में पूर्व-शरीर का आकार बना रहता है, वह नष्ट नहीं होता वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है । जिस समय मनुष्य या तिर्यञ्च अपनी आयु को पूर्ण कर पूर्व शरीर को छोड़ नरक गति के अभिमुख होता है उस समय विग्रहगति में उदय तो नरकगत्यानुपूर्व्यका होता है परन्तु उस समय आत्मा का आकार पूर्व शरीर के अनुसार मनुष्य या तिर्यञ्च का बना रहता है। इसी तरह देवगत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य समझ लेना चाहिये। यह निर्माण नाम कर्म का कार्य नहीं है क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नाम-कर्म का उदय समाप्त हो जाता है। उसके नष्ट होने पर भी आठ कर्मों का पिण्ड कार्मण शरीर और तैजसशरीर से सम्बन्ध रखनेवाले आत्मप्रदेशों का आकार विग्रहगति में पूर्व-शरीर के आकार बना रहता है। विग्रह-गति में इसका काल अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, ऋजुगति में पूर्व-शरीर के आकार का विनाश होने पर तुरन्त उत्तर-शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है, अतः वहाँ निर्माण-कर्म का ही व्यापार है। 12. जिसके उदय से लोहपिण्ड की तरह गुरु होकर न तो पृथ्वी में नीचे ही गिरता है और न रूई की तरह लघु होकर ऊपर ही उड़ जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। धर्म-अधर्म आदि अजीवों में अनादि पारिणामिक अगुरुलघुत्व गुण के कारण अगुरुलघुत्व है। अनादि कर्मबन्धनबद्ध जीवों में कर्मोदय से अगुरुलघुत्व है और कर्मबन्धनरहित मुक्त जीवों में स्वाभाविक अगुरुलघुत्व है। 13-14. जिसके उदय से स्वयंकृत बन्धन और पर्वत से गिरना आदि उपघात हो वह उपघात नाम कर्म है। कवच आदि के रहने पर भी जिसके उदय से परकृत शस्त्र आदि से उपघात होता है वह परघात नामकर्म है। 15-16. जिसके उदय से सूर्य आदि में ताप हो वह आतप नाम-कर्म है तथा जिससे चन्द्र, जुगुनू आदि में उद्योत-प्रकाश हो वह उद्योत नाम-कर्म है। 17. जिसके उदय से श्वासोच्छास हों वह उच्छ्वास नाम कर्म है। 18. आकाश में गति का प्रयोजक विहायोगति नामकर्म है। हाथी, बैल आदि की प्रशस्त गति में कारण प्रशस्त विहायोगति नाम-कर्म होता है तथा ऊँट, गधा आदि की अप्रशस्त गति में कारण अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म है। मुक्तजीव और पुद्गलों की गति स्वाभावि की है । विहायोगति नामकर्म आकाशगामी पक्षियों में ही नहीं है किन्तु सभी प्राणियों में है क्योंकि सबकी आकाश में ही गति होती है। 19-20. शरीर नामकर्म के उदय से बना हुआ शरीर जिसके उदय से एक ही आत्मा के उपभोग्य हो वह प्रत्येक शरीर नाम कर्म है तथा बहुत आत्माओं के उपभोग्य हो वह साधारण शरीर नाम कर्म है । साधारण जीवों के साधारण आहार आदि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म-मरण, श्वासोच्छवास, अनुग्रह और उपघात आदि होते हैं । जब एक के आहार, शरीर, इन्द्रिय और प्राणापान पर्याप्ति होती है, उसी समय शेष अनन्त जीवों की पर्याप्तियाँ होती है। जब एक जन्मता या मरता है उसी समय शेष अनन्त जीवों के जन्म-मरण हो जाते हैं। जिस समय एक श्वासोच्छवास लेता या आहार करता या अग्नि विष आदि से उपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवों के भी श्वासोच्छवास, आहार और उपघात आदि होते हैं । 21-22. जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि जंगम-प्राणियों में जन्म होता है वह त्रस नाम-कर्म है तथा जिसके उदय से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नाम कर्म है। 23-24. रूपवान् या अरूपी कैसा भी हो पर जिसके उदय से दूसरों को प्यारा लगे वह सुभग नाम कर्म है और रूपवान् होकर भी जिसके उदय से दूसरों को प्यारा न लगे किन्तु अप्रीतिकर प्रतीत हो वह दुर्भग नाम कर्म है। 25-26. जिसके उदय से सुन्दर स्वर हो वह सुस्वर और जिसके उदय से भद्दा स्वर हो वह दुःस्वर नामकर्म है। 27-28. जिसके उदय से देखने या सुनने पर रमणीय प्रतीत हो वह शुभ तथा रमणीय प्रतीत न हो वह अशुभ है। 29-30 जिसके उदय से अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति हो वह सूक्ष्म है तथा अन्य को बाधाकर स्थूल शरीर मिले वह बादर है। 31-33. जिसके उदय से आत्मा अन्तर्मुहूर्त में आहार आदि पाप्तियों की पूर्णता कर लेता है वह पर्याप्ति तथा जिससे पर्याप्तियों की पूर्णता न कर सके वह अपर्याप्ति नामकर्म है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति तो सर्वसंसारी जीवों के होती है पर वह अतीन्द्रिय है - कान या स्पर्श से अनुभव में नहीं आती, पर उच्वास नामकर्म के उदय से पंचेन्द्रिय जीव के जो शीत, उष्ण आदि से लम्बे उच्छवासनिश्वास होते हैं वे श्रोत्र और स्पर्शन से ग्राह्य होते हैं। यही दोनों में अन्तर है। 34-35. जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर भी अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कुश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है तथा जिससे एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है। 36-37. जिसके उदय से प्रभायुक्त शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय है। सूक्ष्म तैजस-शरीर-निमित्सक सर्वसंसारी जीवों के होनेवाली साधारण कान्ति आदेय नहीं है, अन्यथा सभी संसारी जीवों के इसका उदय प्राप्त होगा किन्तु आदेय-कर्म-निमित्तक लावण्य या सलौनापन जुदा ही है। 38-39. जिसके उदय से पुण्य गुणख्यापन हो वह यशस्कीर्ति तथा पाप दोषख्यापन हो वह अयशस्कीर्ति है । यश को कीर्ति अर्थात् ख्याति प्रसिद्धि फैलाव हो जिससे वह यशस्कीर्ति है। यश और कीर्ति दोनों शब्द एकार्थक नहीं है। 40-42. जिसके उदय से अचिन्त्य विशेषविभूतियुक्त आर्हन्त्यपद प्राप्त होता है वह तीर्थंकर नाम है । गणधरत्वपद प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होता है, चक्रवर्तित्व, वासुदेव, बलदेव आदि पद उच्च-गोत्र-निमित्तक हैं अतः इनका पृथक् निर्देश नहीं किया है । तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृति का फल है। यह उच्चगोत्र से नहीं हो सकता; क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदि के नहीं पाया जाता । अतः इसका पृथक निर्देश किया है। 43-45. गति आदि विहायोगति पर्यन्त प्रकृतियाँ अकेली-अकेली हैं और प्रत्येक शरीर आदि प्रकृतियों का सेतर-पतिपक्ष सहित से सम्बन्ध करना है अतः सबका एक समास नहीं किया है। तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्कृष्ट है और अन्त्य है, चरमशरीरी के ही इसका उदय देखा जाता है अतः पृथक् इसका निर्देश किया गया है। |