
सर्वार्थसिद्धि :
यहाँ अन्तराय की अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा- दान का अन्तराय, लाभ का अन्तराय इत्यादि। इन्हें दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से यह संज्ञा मिली है। जिनके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता हैं, भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, उपभोग करने की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं ले सकता है और उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्तराय के भेद हैं। प्रकृतिबन्ध के भेद कहे । इस समय स्थितिबन्ध के भेद कहने चाहिए । वह स्थिति दो प्रकार की है - उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति । उनमें जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति समान है उनका निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
अन्तराय शब्द की अनुवृत्ति करके उससे दानादि का सम्बन्ध कर लेना चाहिये -- दानान्तराय आदि ।
|