
सर्वार्थसिद्धि :
जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्त होकर निजीर्ण हो जाता है उसी प्रकार आत्मा को भला-बुरा फल देकर पूर्व प्राप्त स्थिति का नाश हो जाने से स्थिति न रहने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। वह दो प्रकार की है - विपाकजा और अविपाकजा। उसमें अनेक जाति विशेषरूपी भँवर युक्त चार गतिरूपी संसार महासमुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करने वाले इस जीव के क्रम से परिपाक काल को प्राप्त हुए और अनुभवोदयावलिरूपी सोते में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म का फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस को औपक्रमिक क्रियाविशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी औपक्रमिक क्रियाविशेष की सामर्थ्य से उदयावलि के बाहर स्थित जो कर्म बलपूर्वक उदीरणा द्वारा उदयावलि में प्रविष्ट कराके अनुभवा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्रमें 'च' शब्द अन्य निमित्त का समुच्चय करने के लिए दिया है। 'तपसा निर्जरा च' यह आगे कहेंगे, इसलिए 'च' शब्द के देने का यह प्रयोजन है कि पूर्वोक्त प्रकार से निर्जरा होती है और अन्य प्रकार से भी। शंका – यहाँ निर्जरा का उल्लेख किसलिए किया है, क्यों कि उद्देश्य के अनुसार उसका संवर के बाद उल्लेख करना ठीक होता ? समाधान – थोड़े में बोध कराने के लिए यहाँ निर्जरा का उल्लेख किया है। संवर के बाद पाठ देने पर 'विपाकोऽनुभव:' इसका फिरसे अनुवाद करना पड़ता। अनुभवबन्ध का कथन किया। अब प्रदेशबन्ध का कथन करना है। उसका कथन करते समय इतनी बातें निर्देश करने योग्य हैं - प्रदेशबन्ध का हेतु क्या है, वह कब होता है, उसका निमित्त क्या है, उसका स्वभाव क्या है, वह किसमें होता है और उसका परिणमन क्या है। इस प्रकार क्रम से इन प्रश्नों को लक्ष्य में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं - |
राजवार्तिक :
1-2. आत्मा को सुख या दुःख देकर, खाये हुए आहार के मल की तरह स्थिति के क्षय होने से झड़ जाना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है - विपाकजा और अविपाकजा। चतुर्गतिमहासागर में चिर-परिभ्रमणशील प्राणी के शुभ-अशुभ कर्मों का औदयिकभावों से उदयावलि में यथाकाल प्रविष्ट होकर जिसका जिस-रूप में बन्ध हुआ है उसका उसी रूप में स्वाभाविक क्रम से फल देकर स्थिति समाप्त करके निवृत्त हो जाना विपाकजा निर्जरा है । जिन कर्मों का उदयकाल नहीं आया है उन्हें भी तपविशेष आदि से बलात् उदयावलि में लाकर पका देना अविपाक निर्जरा है। जैसे कि कच्चे आम या पनस फल (कटहल) को प्रयोग से पका दिया जाता है। 3-5. 'च' शब्द से संवर के प्रकरण में कहे जानेवाले 'तप' का संग्रह हो जाता है। अर्थात् फल देकर भी निर्जरा होती है तथा तप से भी। यद्यपि संवर के बाद निर्जरा के वर्णन का क्रम आता है फिर भी लाघव के विचार से विपाक के बाद ही निर्जरा का वर्णन कर दिया है। अनुभाग-बन्ध में पुण्य-पाप की तरह निर्जरा का अन्तर्भाव नहीं हो सकता क्योंकि दोनों का अर्थ जुदा-जुदा है । फलदान शक्ति को अनुभव कहते हैं और जिनका फलानुभव किया जा चुका है ऐसे निर्वीर्य कर्मपुद्गलों की निवृत्ति निर्जरा कहलाती है। इसीलिए 'ततश्च' यह अपादान निर्देश बन जाता है । यदि भेद न होता तो अपादान प्रयोग नहीं हो सकता था। 6-7. प्रश्न – यहाँ 'ततो निर्जरा तपसा च' ऐसा लघुसूत्र बना देना चाहिए, इसमें आगे 'निर्जरा' पद का ग्रहण नहीं करना पड़ेगा ? उत्तर – संवरहेतुता का द्योतन करने के लिए तप को संवर के प्रकरण में ही ग्रहण करना उचित है, अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी। यद्यपि उत्तम-क्षमा आदि धर्मों में किया गया तप का निर्देश संवरहेतुता का द्योतन कर देता है और यहाँ कह देने से उसकी निर्जराहेतुता मालूम पड़ जाती है अतः पृथक् 'तपसा निर्जरा च' सूत्र बनाना निरर्थक सा ज्ञात होता है फिर भी सभी संवर और निर्जरा के कारणों में तप की प्रधानता सूचित करने के लिए तप को पृथक रूप से ग्रहण किया है । कहा भी है -'काय, मन और अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है'। अतः यहाँ तप का निर्देश करने में गौरव होता। ये कर्म प्रकृतियाँ घाती और अघाती के भेद से दो प्रकार की हैं। घाती भी सर्वघाती और देशघाती इन दो भेदोंवाली है। केवलज्ञानावरण, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण, बारह कषाय और दर्शनमोह ये बीस प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, संज्वलन और नव नोकषायें देशघाती हैं। बाकी प्रकृतियाँ अघाती हैं । शरीरनाम से लेकर स्पर्श पर्यन्त नाम प्रकृतियाँ अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और निर्माण ये प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं । आनुपूर्व्य क्षेत्रविपाकी है । आयु का कार्य भवधारण कराना है। शेष प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं। |