आत्मस्वभावं परभावभिन्न-
मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।
विलीनसंकल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥10॥
अन्वयार्थ : [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है । वह आत्मस्वभाव को [परभावभिन्नम्] परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विभाव — ऐसे परभावों से भिन्न प्रगट करता है । और वह, [आपूर्णम्] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूप से पूर्ण है — समस्त लोकालोक का ज्ञाता है — ऐसा प्रगट करता है; । और वह, [आदि-अन्त-विमुक्तम्] आत्मस्वभाव को आदि-अन्त से रहित प्रगट करता है । और वह, [एकम्] आत्मस्वभाव को एक — सर्व भेदभावों से रहित एकाकार — प्रगट करता है, और [विलीनसंकल्प-विकल्प-जालं] जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है । ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है ।