(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधी-
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥12॥
अन्वयार्थ : [यदि] यदि [कः अपि सुधीः] कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव [भूतं भान्तम् अभूतम् एव बन्धं] भूत, वर्तमान और भविष्य — तीनों काल के कर्मबन्ध को अपने आत्मा से [रभसात्] तत्काल – शीघ्र [निर्भिद्य] भिन्न करके तथा [मोहं] उस कर्मोदय के निमित्त से होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को [हठात्] अपने बल से (पुरुषार्थ से) [व्याहत्य] रोककर अथवा नाश करके [अन्तः] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति] अभ्यास करे — देखे तो [अयम् आत्मा] यह आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य महिमा] अपने अनुभवसे ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा [व्यक्त :] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं] निश्चल, [शाश्वतः] शाश्वत, [नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः] नित्य कर्मकलङ्क-कर्दम से रहित — [स्वयं देवः] स्वयं ऐसा स्तुति करने योग्य देव [आस्ते] विराजमान है ।