आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः ।
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥19॥
अन्वयार्थ : [आत्मनः] यह आत्मा [मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक है -- भेदरूप अनेकाकार है तथा अमेचक है -- अभेदरूप एकाकार है [चिन्तया एव अलं] ऐसी चिन्ता से तो बस हो । [साध्यसिद्धिः] साध्य आत्मा की सिद्धि तो [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः] दर्शन, ज्ञान और चारित्र -- इन तीन भावोंसे ही होती है, [ न च अन्यथा] अन्य प्रकारसे नहीं ।