कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूला-
मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावै-
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव ॥21॥
अन्वयार्थ : [ये] जो पुरुष [स्वतः वा अन्यतः वा] अपने ही अथवा पर के उपदेश से [कथम् अपि हि] किसी भी प्रकार से [भेदविज्ञानमूलाम्] भेदविज्ञान जिसका मूल उत्पत्ति कारण है ऐसी अपने आत्मा की [अचलितम्] अविचल [अनुभूतिम्] अनुभूति को [लभन्ते] प्राप्त करते हैं, [ते एव] वे ही पुरुष [मुकुरवत्] दर्पण की भांति [प्रतिफ लन-निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः] अपने में प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावों के स्वभावों से [सन्ततं] निरन्तर [अविकाराः] विकाररहित [स्युः] होते हैं, — ज्ञानमें जो ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते ।