(वसन्ततिलका)
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ॥32॥
अन्वयार्थ : [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य] विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डूबोकर (दूर करके) [प्रोन्मग्नः] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः] इसलिये अब समस्त लोक [शान्तरसे] उसके शान्त रस में [समम् एव] एक साथ ही [निर्भरम्] अत्यन्त [मज्जन्तु] मग्न हो जाओ, कि जो शान्त रस [आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है।