इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा
जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ॥45॥
अन्वयार्थ : [इत्थं] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं] ज्ञानरूपी करवत का जो बारम्बार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा] नचाकर [यावत्] जहाँ [जीवाजीवौ] जीव और अजीव दोनों [स्फुट-विघटनं न एव प्रयातः] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [तावत्] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्यम] ज्ञाता-द्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त -चिन्मात्रशक्त्या] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्ति से [विश्वं व्याप्य] विश्व को व्याप्त करके, [स्वयम्] अपने आप ही [अतिरसात्] अतिवेग से [उच्चैः] उग्रतया अर्थात् आत्यन्तिकरूप से [चकाशे] प्रकाशित हो उठा।