(उपजाति)
एकस्य सान्तो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात-
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥82॥
अन्वयार्थ : [सान्तः] जीव सान्त (-अन्त सहित) है [एकस्य] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव सान्त नहीं है [परस्य] ऐसा दूसरे नय का पक्ष है; [इति] इसप्रकार [चिति] चित्स्वरूप जीव के सम्बन्ध में [द्वयोः] दो नयों के [द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य] उसे [नित्यं] निरन्तर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।