(वसन्ततिलका)
स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला-
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् ।
अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥90॥
अन्वयार्थ : [एवं] इसप्रकार [स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्प-जालाम्] जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठता है ऐसी [महतीं] बड़ी [नय-पक्ष-कक्षाम्] नयपक्षकक्षा को (नयपक्ष की भूमि को) [व्यतीत्य] उल्लंघन करके (तत्त्ववेत्ता) [अन्तः बहिः] भीतर और बाहर [समरसैकरसस्वभावं] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे [अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम्] अनुभूतिमात्र एक अपने भाव को ( — स्वरूपको) [उपयाति]प्राप्त करता है ।