नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावांतरच्छिदे ॥1॥
अन्वयार्थ : [नमः समयसाराय] 'समय' अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार—जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो । वह कैसा है ?[भावाय] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है । इस विशेषणपद से सर्वथा अभाववादी नास्तिकों का मत खंडित हो गया । और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है । इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकों का निषेध हो गया। और वह कैसा है? [स्वानुभूत्या चकासते] अपनी ही अनुभवनरूप क्रिया से प्रकाश करता है, अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है , प्रगट करता है - इस विशेषण से आत्मा को तथा ज्ञान को सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय भट्ट-प्रभाकर के भेदवाले मीमांसकों के मत का खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्यज्ञान से जाना जा सकता है- स्वयं अपने को नहीं जानता, ऐसा माननेवाले नैयायिकों का भी प्रतिषेध हो गया । और वह कैसा है? [सर्वभावान्तरच्छिदे] अपने से अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्वक्षेत्र - काल सम्बन्धी, सर्व विशेषणों के साथ, एक ही समय में जाननेवाला है । इस विशेषण से सर्वज्ञ का अभाव माननेवाले मीमांसक आदि का निराकरण हो गया । इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्मा को ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है ।