+ विराधना-रहित आत्माराधक ही प्रतिक्रमण -
आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥84॥
आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८४॥
छोड़े समस्त विराधना आराधनारत जो रहे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण उसको ही कहें ॥८४॥
अन्वयार्थ : [विराधनं] जो (जीव) विराधन को [विशेषेण] विशेषतः [मुक्त्वा] छोड़कर [आराधनायां] आराधना में [वर्तते] वर्तता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।
Meaning : He, who avoiding (all sorts of) transgressions particularly, is observed in self-contemplation is said to have repentance;

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रात्माराधनायां वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् ।

यस्तु परमतत्त्वज्ञानी जीवः निरन्तराभिमुखतया ह्यत्रुटयत्परिणामसंतत्या साक्षात्स्वभावस्थितावात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः । विगतात्माराधनः सापराधः, अत एवनिरवशेषेण विराधनं मुक्त्वा । विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः । यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणमयः स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते ।

तथा चोक्तं समयसारे -
संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं ।
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ॥


उक्तं हि समयसारव्याख्यायां च -
(कलश--मालिनी)
अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु ।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ॥


तथा हि -
(कलश--मालिनी)
अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा
नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः ।
अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो
भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः ॥११२॥



यहाँ आत्माकी आराधना में वर्तते हुए जीव को ही प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा है ।

जो परम तत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अभिमुखरूप से (आत्म सम्मुखरूप से) अटूट (धारावाही) परिणाम-सन्तति द्वारा साक्षात् स्वभाव-स्थिति में - आत्मा की आराधना में - वर्तता है वह निरपराध है । जो आत्मा के आराधन रहित है वह सापराध है; इसीलिये, निरवशेषरूप से विराधन छोड़कर - ऐसा कहा है । जो परिणाम 'विगतराध' अर्थात् राध रहित है वह विराधन है । वह (विराधन रहित - निरपराध) जीव निश्चय प्रतिक्रमणमय है, इसीलिये उसे प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा जाता है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (३०४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : -

(कलश--हरिगीत)
साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है ।
बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ॥२७॥
संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित - यह शब्द एकार्थ हैं; जो आत्मा 'अपगतराध' अर्थात् राध से रहित है वह आत्मा अपराध है ।

श्री समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में भी (१८७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : -

(कलश--हरिगीत)
जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे ।
जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें ॥
अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा ।
शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ॥२८॥
सापराध आत्मा निरंतर अनन्त (पुद्गल परमाणुरूप) कर्मों से बँधता है; निरपराध आत्मा बन्धन को कदापि स्पर्श ही नहीं करता । जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है; निरपराध आत्मा तो भलीभाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करनेवाला होता है ।

और

(कलश--हरिगीत)
परमात्मा के ध्यान की संभावना से रहित जो ।
संसार पीड़ित अज्ञजन वे सापराधी जीव हैं ॥
अखण्ड अर अद्वैत चेतनभाव से संयुक्त जो ।
निपुण हैं संन्यास में वे निरपराधी जीव हैं ॥११२॥
इस लोक में जो जीव परमात्म-ध्यान की संभावना रहित है (जो जीव परमात्मा के ध्यानरूप परिणमन से रहित है - परमात्म-ध्यानरूप परिणमित नहीं हुआ है ) वह भवार्त जीव नियम से सापराध माना गया है; जो जीव निरंतर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्यभावसे युक्त है वह कर्म-संन्यास दक्ष (कर्मत्याग में निपुण) जीव निरपराध है ।