+ उन्मार्ग-त्यागी जिनमार्गी ही प्रतिक्रमण -
उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥86॥
उन्मार्गं परित्यज्य जिनमार्गे यस्तु करोति स्थिरभावम् ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८६॥
उन्मार्ग का कर परित्यजन जिनमार्ग में स्थिरता करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतु से प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [उन्मार्गं] उन्मार्ग का [परित्यज्य] परित्याग करके [जिनमार्गे] जिनमार्ग में [स्थिरभावम्] स्थिरभाव [करोति] करता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।
Meaning : He, who avoiding the wrong path, firmly walks in the right path of the Conquerors (Jinas, is said to have repentance because he himself is the embodiment of repentance.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र उन्मार्गपरित्यागः सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्त : ।
यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यद्रष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्त: शुद्ध-निश्चयसद्दृष्टिः बुद्धादिप्रणीतमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मार्गाभासमुन्मार्गं परित्यज्य व्यवहारेण महादेवाधिदेवपरमेश्वरसर्वज्ञवीतरागमार्गे पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोध-षडावश्यकाद्यष्टाविंशतिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहज-बोधादिशुद्धगुणालंकृते सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावं शुद्धचारित्रमयं करोति, स मुनिर्निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणं परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधनः सदा शुद्ध इति ।

तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम् -
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरै-
रुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः ।
आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वत-
श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ॥


तथा हि -
(कलश--मालिनी)
विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ताः
तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः ।
गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ॥११५॥



यहाँ उन्मार्ग के परित्याग और सर्वज्ञ वीतराग-मार्ग के स्वीकार का वर्णन किया गया है ।

जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव रूप मल-कलङ्क-पंक से विमुक्त (मल-कलङ्करूपी कीचड़ से रहित) शुद्ध निश्चय सम्यग्दृष्टि (जीव) बुद्धादि प्रणीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रात्मक मार्गाभासरूप उन्मार्ग का परित्याग करके, व्यवहार से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक इत्यादि अट्ठाईस मूलगुण स्वरूप महादेवाधिदेव - परमेश्वर - सर्वज्ञ - वीतराग के मार्ग में स्थिर परिणाम करता है, और शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि शुद्धगुणों से अलंकृत, सहज परम चैतन्य सामान्य तथा (सहज परम) चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज परमात्म-द्रव्य में शुद्ध-चारित्रमय स्थिरभाव करता है, (जो शुद्धनिश्चय - सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार से अट्ठाईस मूलगुणात्मक मार्ग में और निश्चय से शुद्ध गुणों से शोभित दर्शनज्ञानात्मक परमात्म-द्रव्य में स्थिरभाव करता है) वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमण-स्वरूप कहलाता है, कारण कि उसे परम-तत्त्वगत (परमात्मतत्त्व के साथ सम्बन्धवाला) निश्चय-प्रतिक्रमण है इसीलिये वह तपोधन सदा शुद्ध है । इसीप्रकार श्री प्रवचनसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत तत्त्वदीपिका नामक) टीका में (१५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--मनहरण कवित्त)
उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है ॥
पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो ।
उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं ॥
चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ॥
क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके ।
सभी ओर से सदा वास करो निज में ॥२९॥
इसप्रकार विशिष्ट आदरवाले पुराण पुरुषों द्वारा सेवन किया गया, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमिकाओं में व्याप्त जो चरण (चारित्र) उसे यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्य सामान्य और चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज-द्रव्य में सर्वतः स्थिति करो ।

और -

(कलश--हरिगीत)
जो मुक्त सब संकल्प शुध निजतत्त्व में अनुरक्त हों ।
तप मग्न जिनका चित्त नित स्वाध्याय में जो मत्त हों ॥
धन्य हैं जो सन्त गुणमणि युक्त विषय विरक्त हों ।
वे मुक्तिरूपी सुन्दरी के परम वल्लभ क्यों न हों ॥११५॥
जो विषय-सुख से विरक्त हैं, शुद्ध-तत्त्व में अनुरक्त हैं, तप में लीन जिनका चित्त है, शास्त्र-समूह में जो मत्त हैं, गुणरूपी मणियों के समुदाय से युक्त हैं और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं, वे मुक्ति-सुन्दरी के वल्लभ क्यों न होंगे ?

अन्यदृष्टिसंस्तव = (१) मिथ्यादृष्टि का परिचय; (२) मिथ्यादृष्टि की स्तुति । (मन से मिथ्यादृष्टि की महिमा करना वह अन्यदृष्टि प्रशंसा है और मिथ्यादृष्टि की महिमा के वचन बोलना वह अन्यदृष्टिसंस्तव है ।)
आदर = सावधानी; प्रयत्न; बहुमान ।
मत्त = मस्त; पागल; अति प्रीतिवंत; अति आनन्दित ।