+ समता-रहित श्रमण को कुछ भी कार्यकारी नहीं -
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो ।
अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥124॥
किं करिष्यति वनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः ।
अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य ॥१२४॥
वनवास, कायाक्लेशरूप अनेक विध उपवास से ।
वा अध्ययन मौनादि से क्या ! साम्यविरहित साधु के ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [वनवासः] वनवास, [कायक्लेशःविचित्रोपवासः] काय-क्लेशरूप अनेक प्रकार के उपवास, [अध्ययनमौनप्रभृतयः] अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [समतारहितस्य श्रमणस्य] समता-रहित श्रमण को [किं करिष्यति] क्या (लाभ) करते हैं ?
Meaning : What is the good of residing in forest, mortification of body, observance of various fasts, study of scriptures, and keeping silence, etc., to a saint, who is devoid of equanimity.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र समतामन्तरेण द्रव्यलिङ्गधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणंनास्तीत्युक्तम् । सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त महानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासावासेनप्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीव्रकरकरसंतप्तपर्वताग्रग्रावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफ लेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा, सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति ।
तथा चोक्तम् अमृताशीतौ —
(कलश--मालिनी)
गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-
स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा- ।
प्रपठनजपहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः
मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः ॥


तथा हि -
(कलश--द्रुतविलंबित)
अनशनादितपश्चरणैः फलं
समतया रहितस्य यतेर्न हि ।
तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं
भज मुने समताकुलमंदिरम् ॥२०२॥



यहाँ (इस गाथा में), समता के बिना द्रव्य-लिंगधारी श्रमणाभास को किंचित् परलोक का कारण नहीं है (किंचित् मोक्ष का साधन नहीं है ) ऐसा कहा है ।

केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़ से विमुक्त महाआनन्द के हेतुभूत परमसमताभाव बिना,
  • वनवास में वसकर वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे स्थिति करने से, ग्रीष्मऋतु में प्रचंड सूर्य की किरणों से संतप्त पर्वत के शिखर की शिला पर बैठने से और हेमंतऋतु में रात्रि में दिगम्बर दशा में रहने से,
  • त्वचा और अस्थिरूप (मात्र हाड़-चामरूप) हो गये सारे शरीर को क्लेशदायक महा उपवास से,
  • सदा अध्ययनपटुता से (सदा शास्त्र-पठन करने से), अथवा
  • वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति-स्वरूप सतत मौनव्रत से
क्या किंचित् भी उपादेय फल है ? (मोक्ष के साधनरूप फल किंचित् भी नहीं है ।)

इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीति में (५९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से ।
इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से ॥
पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से ।
है नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से ॥५०॥
पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहने से, इन्द्रिय-निरोध से, ध्यान से, तीर्थसेवा से, (तीर्थस्थान में वास करने से), पठन से, जप से तथा होम से ब्रह्म की (आत्मा की) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई ! तू गुरुओं द्वारा उससे अन्य प्रकार को ढूँढ ।

अब

(कलश--हरिगीत)
अनशनादि तपस्या समता रहित मुनिजनों की ।
निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर ॥
और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो ।
उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से ॥२०२॥
वास्तव में समता-रहित यति को अनशनादि तपश्चरणों से फल नहीं है; इसलिये, हे मुनि ! समता का कुलमंदिर (उत्तम वंश-परम्परा का घर) ऐसा जो यह अनाकुल निज तत्त्व उसे भज ।