
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र समतामन्तरेण द्रव्यलिङ्गधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणंनास्तीत्युक्तम् । सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्त महानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासावासेनप्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीव्रकरकरसंतप्तपर्वताग्रग्रावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफ लेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा, सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति । तथा चोक्तम् अमृताशीतौ — (कलश--मालिनी) गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश- स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा- । प्रपठनजपहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः ॥ तथा हि - (कलश--द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं समतया रहितस्य यतेर्न हि । तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं भज मुने समताकुलमंदिरम् ॥२०२॥ यहाँ (इस गाथा में), समता के बिना द्रव्य-लिंगधारी श्रमणाभास को किंचित् परलोक का कारण नहीं है (किंचित् मोक्ष का साधन नहीं है ) ऐसा कहा है । केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़ से विमुक्त महाआनन्द के हेतुभूत परमसमताभाव बिना,
इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीति में (५९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहने से, इन्द्रिय-निरोध से, ध्यान से, तीर्थसेवा से, (तीर्थस्थान में वास करने से), पठन से, जप से तथा होम से ब्रह्म की (आत्मा की) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई ! तू गुरुओं द्वारा उससे अन्य प्रकार को ढूँढ ।विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से । इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से ॥ पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से । है नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से ॥५०॥ अब (कलश--हरिगीत)
वास्तव में समता-रहित यति को अनशनादि तपश्चरणों से फल नहीं है; इसलिये, हे मुनि ! समता का कुलमंदिर (उत्तम वंश-परम्परा का घर) ऐसा जो यह अनाकुल निज तत्त्व उसे भज ।
अनशनादि तपस्या समता रहित मुनिजनों की । निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर ॥ और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो । उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से ॥२०२॥ |