
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
नवनोकषायविजयेन समासादितसामायिकचारित्रस्वरूपाख्यानमेतत् । मोहनीयकर्मसमुपजनितस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साभिधाननवनोकषाय-कलितकलंकपंकात्मकसमस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मक-परमतपोधनः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासनसिद्धपरमसामायिकाभिधानव्रतं शाश्वतरूपमनेन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति । (शिखरिणी) त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम् । महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम् ॥२१८॥ यह, नौ नोकषाय की विजय द्वारा प्राप्त होने वाले सामायिक चारित्र के स्वरूप का कथन है । मोहनीय कर्म-जनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नाम के नौ नोकषाय से होने वाले कलंक पंकस्वरूप (मल-कीचड़-स्वरूप) समस्त विकार-समूह को परम-समाधि के बल से जो निश्चय-रत्नत्रयात्मक परम तपोधन छोड़ता है, उसे वास्तव में केवली भट्टारक के शासन से सिद्ध हुआ परम सामायिक नाम का व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रों से कहा है । (कलश--हरिगीत)
संसार स्त्री जनित *सुखदुःखावलि का करनेवाला नौकषायात्मक यह सब (नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) मैं वास्तव में प्रमोद से छोड़ता हूँ, कि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहांध जीवों को निरन्तर सुलभ है तथा निरन्तर आनन्दित मनवाले समाधिनिष्ठ (समाधि में लीन) जीवों को अति दुर्लभ है ।मोहांध जीवों को सुलभ पर आत्मनिष्ठ समाधिरत । जो जीव हैं उन सभी को है महादुर्लभ भाव जो ॥ वह भवस्त्री उत्पन्न सुख-दुखश्रेणिकारक रूप है । मैं छोड़ता उस भाव को जो नोकषायस्वरूप है ॥२१८॥ *सुखदुःखावलि = सुखदुःख की आवलि; सुखदुःख की पंक्ति / श्रेणी । (नौ नोकषायात्मक विकार संसाररूपीस्त्री से उत्पन्न सुखदुःख की श्रेणी का करनेवाला है ।) |