+ नौ नोकषाय की विजय -
जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥131॥
जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥132॥
यस्तु हास्यं रतिं शोकं अरतिं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३१॥
यः जुगुप्सां भयं वेदं सर्वं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३२॥
जो नित्य वर्जे हास्य, अरु रति, अरति, शोक-विरत रहे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१३१॥
जो नित्य वर्जे भय जुगुप्सा, सर्व वेद समूह रे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१३२॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [हास्यं रतिं शोकं अरतिं] हास्य, रति, शोक और अरति को [नित्यशः वर्जयति] नित्य वर्जता (त्यागता) है, [तस्य सामायिकं स्थायि] उसे सामायिक स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
[यः जुगुप्सां भयं सर्वं वेदं] जो जुगुप्सा, भय और सर्व वेद को [नित्यशः वर्जयति] नित्य वर्जता है, [तस्य सामायिकं स्थायि] उसे सामायिक स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
Meaning : He, who always refrains from risibility, indulg. ence, sorrow, and ennui (is said to have) steadfast equanimity according to the preaching of the omniscient.
He, who always refrains from disgust, fear, sexual-inclination, etc., (is said to have) steadfast equanimity, according to the preaching of the omniscient.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
नवनोकषायविजयेन समासादितसामायिकचारित्रस्वरूपाख्यानमेतत् । मोहनीयकर्मसमुपजनितस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साभिधाननवनोकषाय-कलितकलंकपंकात्मकसमस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मक-परमतपोधनः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासनसिद्धपरमसामायिकाभिधानव्रतं शाश्वतरूपमनेन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति ।
(शिखरिणी)
त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं
मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम् ।
महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं
समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम् ॥२१८॥



यह, नौ नोकषाय की विजय द्वारा प्राप्त होने वाले सामायिक चारित्र के स्वरूप का कथन है ।

मोहनीय कर्म-जनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नाम के नौ नोकषाय से होने वाले कलंक पंकस्वरूप (मल-कीचड़-स्वरूप) समस्त विकार-समूह को परम-समाधि के बल से जो निश्चय-रत्नत्रयात्मक परम तपोधन छोड़ता है, उसे वास्तव में केवली भट्टारक के शासन से सिद्ध हुआ परम सामायिक नाम का व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रों से कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
मोहांध जीवों को सुलभ पर आत्मनिष्ठ समाधिरत ।
जो जीव हैं उन सभी को है महादुर्लभ भाव जो ॥
वह भवस्त्री उत्पन्न सुख-दुखश्रेणिकारक रूप है ।
मैं छोड़ता उस भाव को जो नोकषायस्वरूप है ॥२१८॥
संसार स्त्री जनित *सुखदुःखावलि का करनेवाला नौकषायात्मक यह सब (नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) मैं वास्तव में प्रमोद से छोड़ता हूँ, कि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहांध जीवों को निरन्तर सुलभ है तथा निरन्तर आनन्दित मनवाले समाधिनिष्ठ (समाधि में लीन) जीवों को अति दुर्लभ है ।

*सुखदुःखावलि = सुखदुःख की आवलि; सुखदुःख की पंक्ति / श्रेणी । (नौ नोकषायात्मक विकार संसाररूपीस्त्री से उत्पन्न सुखदुःख की श्रेणी का करनेवाला है ।)